मनुष्य दो खिड़कियों के मध्य जी रहा है। एक खिड़की बाहर की ओर खुलती है, दूसरी भीतर की ओर। बाहर की खिड़की खुली है, जबकि भीतर की खिड़की बंद है। बाहर से जो आता है वह दंड शक्ति है, जिससे शासन-सत्ता और सामाजिक व्यवहार चलते हैं।
हम बहुधा बाहर की खिड़की को ही खुला रखते हैं, भीतर की खिड़की को प्राय: बंद ही रखते हैं। बाहर की खिड़की बंद हो जाये और भीतर की खिड़की खुल जाये तो हमारे भीतर नैतिकता का उदय हो जाये, क्योंकि वह भीतर की खिड़की ही तो है, जिससे नैतिक बोध होता है।
कर्त्तव्य पारायणता की प्रेरणा मिलती है, परन्तु हम भीतर की खिड़की को जीवन पर्यन्त खोलने का प्रयास ही नहीं करते, क्योंकि ऐसा करना सुविधाजनक नहीं लगता। जीवन का अधिकांश समय हम बाहरी खिड़की पर ही व्यतीत कर देते हैं, किन्तु सच्चाई यह है कि हमारी समस्त समस्याओं का समाधान हमारे भीतर ही है।
जब तक हम अपने अन्दर को प्रकाशित कर उसके आलोक में अपने आपको नहीं खोजेंगे, तब तक यूं ही भटकते रहेंगे। मंजिल हमसे दूर ही रहेगी, उसे छूने की क्षमता हममें आ ही नहीं पायेगी। भीतर के प्रकाश में ही हम अपने आपको देख पायेंगे। हमारे ज्ञान चक्षुओं पर पड़ा अज्ञान का आवरण तभी हट पायेगा।