कर्म जड़ है, किन्तु कर्ता चेतन है, जो उन कर्मों को करता है इसलिए उस कर्म के कर्ता की भावना के अनुरूप ही उस कर्म का फल प्राप्त होता है। कर्मों को पता नहीं कि वे कर्म हैं, शरीर जिसके द्वारा कर्म किया गया है उसे भी पता नहीं कि मैं शरीर हूं, मकान को पता नहीं कि मैं मकान हूं, मेरा कर्ता (निर्माता) कौन है।
वह इसलिए कि ये सब जड़ हैं, परन्तु कर्ता तो चेतन है, उसे ज्ञान है कि कर्म का स्वरूप क्या है, वह कर्तव्य है अथवा अकर्तव्य। इसीलिए वह (कर्ता) कर्म के अनुसार फल पाने को बाध्य है। इसलिए ऐसे कर्म न करें जो बंधनकारक हों। शरीर रक्षा के लिए जो वस्त्र पहनते हैं वह हमारा कर्तव्य है यदि उसे फैशन के लिए पहने तो वह वस्त्र पहनने का कर्म भी बन्धन हो जायेगा।
इसी प्रकार बेटे को खिलाया-पिलाया, पढ़ाया-लिखाया यह कर्तव्य है, परन्तु बड़ा होकर बेटा मुझे सुख देगा, सेवा करेगा, ऐसा भाव रखोगे तो बंधन हो जायेगा। कर्म करो परन्तु उसमें सुख का आश्रय न ढूंढो। कर्म करे कर्तव्य समझकर ऐसा करोगे तो ठीक है, परन्तु उसमें सुख ढूंढोगे तो वह बन्धन हो जायेगा।
परमात्मा की प्रीति के लिए कर्म करोगे तो कर्म, कर्म नहीं रहेगा साधना हो जायेगा, पूजा हो जायेगा, भक्ति बन जायेगा, निष्काम भाव से परोपकार में किये गये कार्य भक्ति की श्रेणी में आते हैं। इसलिए स्वहित के कार्यों के साथ-साथ परहित के कार्य भी किये जाते रहने चाहिए।