संसार में आज वर्गवाद का जो संघर्ष चल रहा है उसमें पूंजीपति एक ओर तथा मजदूर दूसरी ओर। यद्यपि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का गुजारा नहीं, किन्तु दूसरा वर्ग पहले के सर्वनाश की तैयारी में लगा रहता है। इसे उसकी अदूरदर्शिता ही कहा जा सकता है।
वास्तव में अति पूंजीवाद ही साम्यवाद का जनक है, जिसे मजदूर अपना संरक्षक समझते हैं, जबकि सच यह भी है कि कुछ चंद लोग मजदूरों के संरक्षक बनने का ढोंग ही करते हैं, जबकि वे अपनी स्वार्थ सिद्धि अधिक करते हैं।
परिग्रह की भावना ही पूंजीवाद की पोषक है। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी आवश्यकताओं से अधिक संग्रह न करें और वह अपने से फालतू सामग्री वहां वितरित कर दें, जहां उसकी जरूरत है। प्रत्येक व्यक्ति यह समझे कि मैं किसी वस्तु का स्वामी नहीं सारे संसार की वस्तुओं का स्वामी ईश्वर है।
भूमि उसकी है, सोना-चांदी उसके हैं, समुद्र उसके हैं, वन-पर्वत उसके हैं, नदियां उसकी हैं। अन्न उसी की पृथ्वी से उगता है, उसका जल ही उसे सींचता है। मैं तो केवल भोग करने वाला हूं। आज की महंगाई का कारण यह परिग्रह ही है फिर मैं इस पाप का भागीदार क्यों बनूं। रोटियां तो दो-चार ही खानी है। चाहे किसी के पास किलो भर आटा हो अथवा कुन्तलों में हो। अधिक खाकर मृत्यु को बुलावा ही तो देना है। तब अधिक का लोभ क्यों किया जाये। इस लोभ से बचना ही अपरिग्रह है और अपरिग्रह ही इस रोग की औषधि है। सांई इतना दीजिए जिसमें कुटम्ब समाय, मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाये।