सामान्यतः कहा जाता है कि भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। यह लोकोक्ति आंशिक सत्य है। मनुष्य योनि कर्म योनि है। यहां उसे कर्म करने में स्वतंत्रता है। वह स्वतंत्रता से कर्म करता है, किन्तु उसका फल परमात्मा की व्यवस्था के अनुसार पाता है। यदि भगवान की मर्जी से ही सब कुछ होता हो तो वह कभी पाप कर्म करेगा ही नहीं, क्योंकि परमात्मा मनुष्य से शुभ कर्मों की ही अपेक्षा करता है। यदि वह भगवान की मर्जी से ही सब कुछ करे तो उसे पाप-पुण्य का फल कभी प्राप्त न हो।
जैसे सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से सैनिक अनेकों को मारकर भी अपराधी नहीं होते वैसे ही परमेश्वर की प्रेरणा और अधीनता से काम किये जाये तो जीव को पाप पुण्य न लगे। उस फल का भागी उन कर्मों का प्रेरक परमात्मा स्वयं हो वह मनुष्य नहीं जिसके द्वारा वह कर्म किया गया है। जैसे किसी मनुष्य ने किसी की हत्या कर दी तो मारने वाला पकड़ा जाता है और वहीं दंड पाता है वह शस्त्र नहीं जिससे हत्या की गई। जेल या फांसी हत्या करने वाले मनुष्य को होगी उस शस्त्र को नहीं। इसी प्रकार पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसलिए जीव कर्म करने में स्वतंत्र और कर्म कर चुकने के बाद ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर कर्मानुसार फल भोगता है।