सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये दोनों ही परस्पर जुड़े रहते हैं। सुख आया है तो दुख का आगमन भी अनिवार्य है। ऐसा नहीं हो सकता कि केवल दुख आये, सुख न आये और सुख आये तो दुख की छाया भी न पड़े।
विश्व का प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है। सुख के लिए वह निरन्तर प्रयास भी करता है। दुख को सब दुत्कारते है कोई भी उसका स्वागत नहीं करता फिर भी सुख की अपेक्षा दुख ही अधिक प्राप्त होते हैं। यह स्वाभाविक है कि जिसे हम चाहते हैं वह बहुत प्रयासों के बाद प्राप्त हो पाता है और जिसे हम नहीं चाहते वह अकारण और बिना बुलाये ही आ धमकता है। ऐसा क्यों होता है?
इसका सरल सा समाधान है कि हमने सुख के शास्त्र को समझने में कुछ भूल कर दी है। वस्तुत: जिसे हम सुख मान बैठे हैं वह सुख है ही नहीं। वह सुखाभास मात्र है। वह ऐसे जैसे एक यात्री को मार्ग में छायादार वृक्ष मिल जाये पर यात्री के लिए वह वृक्ष उतनी ही देर के लिए सुख का कारक है, जितनी देर उसे विश्राम चाहिए।
यदि वह वृक्ष को ही अपने मंजिल मान ले उसी को अपना घर मान बैठे तो यह उसकी भूल है, क्योंकि वह एक यात्री है उसे आगे बढना है। हमारी त्रासदी यह है कि इस जीवन को ही मंजिल मान बैठे हैं।