जानते सभी हैं पर मानते नहीं कि ईश्वर हमारे भीतर विराजमान है। तभी तो हम देवालयों में ही उसकी विद्यमानता को मान रहे हैं और उसे पाने के लिए परिक्रमा भी उन्हीं की कर रहे हैं, उसी को भगवान का घर कह रहे हैं। यह कैसा विरोधाभास है।
किसी कवि ने सच कहा ‘तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर आलीशान। जिसने इस सूत्र को पकड़ लिया उसी का कल्याण हो गया। जो वस्तु जहां मौजूद है, उसकी प्राप्ति वहीं तो होगी। यदि हम उसे इधर-उधर ढूंढते रहे तो हम उस तक पहुंच ही नहीं पायेंगे।
जिसने उसे जाना, प्राप्त भी उसी ने किया। उसे सब कोई प्राप्त कर सकता है। उसे पाने की ऐसी कोई शर्त नहीं, जिसमें कोई धन व्यय करना पड़े, किन्तु सरलता, सहजता, श्रद्धा, विश्वास और जिज्ञासा के साथ अपने अन्त स्थल में प्रवेश करना होगा। किसी सच्चे संत, योग से भी मार्ग दर्शन लिया जा सकता है, किन्तु उसे पाने के लिए साधना स्वयं ही करनी होगी।