परमात्मा का ध्यान करने से पहले उसकी अपनी आत्मा में अनुभूति करें। यह मात्र लिखने अथवा पढऩे का विषय नहीं है अर्थात यह केवल पुस्तकीय वस्तु नहीं है। यह एक सच्चाई है। इसके लिए साधना की आवश्यकता है।
साधना का अर्थ पदमासन में बैठकर नाम जपना अथवा धूनी लगाकर उसमें शरीर को तपाना नहीं, शरीर को भूखा मारकर जर्जर करना नहीं है अथवा कड़ी सर्दी में जल में खड़े होकर जप जाप करना नहीं है। साधना से तात्पर्य मन को साधने से है, जिसमें पहले ईश्वर की अपने भीतर वर्तमानता को स्वीकार करना होगा।
उसके प्रति श्रद्धा और अटूट विश्वास पैदा करना होगा। हमें यह ज्ञान हो कि यदि हम कोई ऐसा कार्य करेंगे जो सत्य की कसौटी पर खरा न उतरे तो वह सब परमात्मा की दृष्टि में है। वह हमारे भीतर से सब कुछ देख रहा है। हमारा आचरण श्रेष्ठ, धर्म और न्याय सम्मत हो। किसी पाप कर्म को करने की बात तो दूर उसके विषय में सोचने की धृष्टता भी हम न करें। यदि हमने स्वयं को निर्मल, निष्कपट और पाप रहित बना लिया तो प्रकाश रूप में परमात्मा के दर्शन अवश्य होंगे। इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा मार्ग है ही नहीं।