जीव संसार में आता है तो कुछ मूलभूत आवश्यकताएं जो उसके जीवन यापन के लिए अनिवार्य है, उनकी पूर्ति करना उसकी बाध्यता है। रोटी-कपड़ा और मकान जैसे नारे की सार्थकता को झुठलाया नहीं जा सकता।
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रोटी अर्थात अन्न यह मनुष्य का प्राण है, भूखे के लिए वह ईश्वर है, ब्रह्म है। इसलिए उपनिषद ब्रह्म को अन्न रूप में देखता है ‘अन्नं ब्रह्म’ कहता है। कपड़ा जीवन में इसलिए अपरिहार्य है, क्योंकि वह सामाजिक लज्जा की रक्षा तो करता ही है तो दूसरी ओर यह मनुष्य की उस प्रवृत्ति को तुष्ट करता है जिस प्रवृत्ति से मनुष्य स्वयं को सुन्दर दिखाना चाहता है।
इसी कारण वह अपनी रूचि के अनुकूल वस्त्रों का चुनाव करता है। मकान ऋतु परिवर्तन की विपरीत परिस्थितियों में आश्रय देने का साधन है। सामाजिक व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक होता है कि वह किसी न किसी ऐसी जीविका का चयन करे, जिससे उसे अर्थ लाभ हो और उस अर्थ (धन) से वह ये तीनों चीजें पाकर अपने जीवन को सुचारू रूप से चला सके।