जीवन यापन के लिए धन की आवश्यकता होती है। इस धन से वह अपनी मूलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान का प्रबन्ध कर सके। इनके अतिरिक्त भी उसे अपनी गृहस्थी चलाने के लिए कुछ अन्य उत्तरदायित्वों की पूर्ति भी करनी पड़ती है। जैसे बच्चों की पढ़ाई उनके विवाह आदि। अन्य लोक व्यवहार के लिए भी उसे समुचित धन का प्रबन्ध करना पड़ता है।
इन सबकी पूर्ति के लिए उसे कोई न कोई आजीविका का साधन जुटाना पड़ता है। यही कारण है कि हममें कोई शासकीय सेवा चुनता है, कोई व्यापार करता है, कोई कृषि से अपनी जीविका चलाता है तो कोई मजदूरी करके अपना निर्वाह करता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इनसे इतर जीविका के साधन का आश्रय लेते हैं।
जैसे कोई मादक पदार्थ बेचता है, कोई मांस की बिक्री करता है, कोई विषैले पदार्थ बेचता है। कुछ तो ऐसे भी हैं जो अबोध बच्चों का अपहरण कर उन्हें दास बनाकर बेचते हैं अथवा उन्हें अनैतिक कार्यों में लगा देते हैं, कुछ चोरी करते हैं उसी से अपनी जीविका चलाते हैं।
हमारे मनीषियों ने इस सम्बन्ध में यह कहा है कि किसी भी मनुष्य को यह अधिकार प्राप्त नहीं होता वह ऐसे अनैतिक कार्यों के माध्यम से धन कमायें, जिससे दूसरों की बर्बादी हो अथवा दूसरों को पीड़ा हो, मनीषियों का दृढ मन्तव्य है कि जिस किसी भी व्यक्ति को अपने परिवार के कल्याण की चिंता है तो वह ऐसे अनैतिक कार्य न करें जो व्यक्ति और समाज का अहित करते हों। मनुष्य को चाहिए कि वह मानवोचित निर्धारित कुशल कर्म करके ही सम्यक आजीविका से ही अपना भरण-पोषण करे और जीवन के लक्ष्य के रूप में प्राप्त करने योग्य कल्याण की प्राप्ति करें।