यर्जुवेद का आदेश है ‘मनुष्य को कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग (जीवित रहने का) नहीं है। संसार में मनुष्य पुरूषार्थी बनकर उन्नत होने के लिए उत्पन्न होता है। संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं, जो गतिशील न हो। सूर्य चलता है, पृथ्वी चलती है, चन्द्रमा गति करता है कोई नक्षत्र नहीं जो ठहरा हुआ हो।
गतिशील होने से ही जगत संसार कहलाता है, इसमें बड़ी से बड़ी वस्तु सूर्य यदि गति में है तो छोटी से छोटी वस्तु परमाणु (एटम) तथा विद्युत कण (अल्ट्रोन) तक गतिशील हैं फिर यहां मनुष्य किस प्रकार अकर्मण्य और आलसी बनकर जीवित रह सकता है। मनुष्य को गतिशील रहते हुए उन्नति करनी चाहिए, नीचे नहीं गिरना चाहिए, क्योंकि गिरने (अवनति) का मार्ग भयप्रद है। अवनति का मार्ग अंधकार का मार्ग है।
प्राकृतिक नियम यह है कि उन्नति करे या नष्ट होने को तैयार रहें। इसलिए मनुष्य को सत्पुरूषार्थ करना चाहिए। सत्पुरूषार्थ से तात्पर्य सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से किया गया पुरूषार्थ है। पुरूषार्थ तो चोर, डकैत और बेईमान भी करता है, बिना पुरूषार्थ के तो वह भी अपने कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु उसका पुरूषार्थ किसी न किसी को पीड़ा देने वाला होता है। इसलिए वह सतपुरूर्षों की दृष्टि में हेय और त्याज्य है। केवल सत्पुरूषार्थी ही प्रभु की दृष्टि में प्रिय है।