मनुष्य के भीतर तमाम नकारात्मक प्रवृतियों में लोभ एक मुख्य विकार है। किसी भौतिक वस्तु धन, जमीन, जायदाद से जुड़ा आकर्षण और उसे अधिक से अधिक पाने की तृष्णा को लोभ कहते हैं। लोभी व्यक्ति की इच्छाओं की कोई थाह नहीं। इससे वह सामाजिक प्रतिष्ठा के पतन की ओर बढ़ रहा है। लालच के कारण ही व्यक्ति की बुद्धि और विवेक कार्य करना बंद कर देते हैं। हमारे धर्म ग्रंथों में शान्ति, मोक्ष और आध्यात्मिक सुख पाने के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे विकारों को दूर करने को बहुत प्राथमिकता दी गई है। दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाये तो मनुष्य अनेक प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों के जाल में फंसा है। लोभ भी मनुष्य की एक प्रकार की आवश्यकता है, क्योंकि इसके बिना किसी भी व्यक्ति को पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना कठिन हो जाता है। सीमित सीमा में यह एक गम्भीर विकार नहीं है, परन्तु जब यह अपनी सीमा का उल्लंघन करता है तो बड़ा विकार बन जाता है। यदि मनुष्य अपना संतुलन बनाये रखे तो उसे किसी प्रकार का विकार नहीं घेर सकता अन्यथा मानसिक असंतुलन तो उसे लोभ, मोह और अतिमहत्वाकांक्षा की ओर ही धकेलता है।