संयमी जीवन को ही सही अर्थों में ‘जीवन की संज्ञा दी जा सकती है। असंयमी व्यक्ति तो परमात्मा द्वारा प्रदत्त सांसों को ही किसी प्रकार से पूरा करता है, उसे सच्चे अर्थों में जीवन कहा ही नहीं जा सकता। हमें अपने द्वारा किये गये कर्मों का फल भोगना ही होगा।
इस सच्चाई का यदि ज्ञान हो जाये तो मनुष्य कर्म फल के सिद्धांत को सहज ही समझ लेता है तथा अपने जीवन को आनन्द की दिशा में मोड़कर अच्छे कर्मों के प्रति प्रवृत्त हो जाता है, निरन्तर शुभ कर्मों में रत रहने से चित्त उत्साह से परिपूर्ण आशावादी बना रहता है। कर्म की समग्रता के लिए संयम की ऊर्जा का संबल परमावयक है। संयम के अभाव में हम शुभ कर्मों में प्रवृत हो ही नहीं सकते।
संयम द्वारा मनुष्य इन्द्रियों की चंचलता को वशीभूत करने में सक्षम हो जाता है। उसके व्यवहार में विनयशीलता एवं आचरण में पवित्रता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगती है। स्वस्थ शरीर में ही सुविचार आते हैं। रोगी शरीर में नकारात्मक विचार अपना डेरा जमा लेते हैं। स्वस्थ रहने के लिए भी शरीर का संयमित रहना भी आवश्यक है। संयम ही शरीर को शुभ कर्मों में गतिशील रखता है। अत: संयमित जीवन ही श्रेष्ठ जीवन की सफलता है।