कर्म उपासना और ज्ञान की कथएं कहते-सुनते तथा पुस्तकें पढ़ते तो बहुत समय बीत गया। यहां तक कि सुनते-सुनाते काम बहरे हो चले, पढ़ते-पढ़ाते आंखे अंधी हो चली। उपदेश करते-करते वाणी भी थक गई। युगो-युगों से यही तो चलता आ रहा है, किन्तु क्या हमारे मन का स्वाभाव बदला।
यदि सब कुछ करने की बा भी मन का स्वाभाव न बदला हम उसी प्रकार से लोग, ईष्र्या, द्वेष तथा व्यर्थ की कामनाओं के कीचड़ में ही धंसे रहे फिर पढऩे-सुनने तथा, प्रवचन कथा श्रवण का क्या लाभ तो तब हो जब ज्ञान को जीवन में उतारने का प्रयास किया जाये उसका अभ्यास किया जाये।
अभ्यास होगा तो हममें धीरे-धीरे ही सही परिवर्तन अवश्य आयेगा, परन्तु होता यह है कि ज्ञान श्रवण जिस स्थली पर हो रहा है, उससे बाहर निकलते ही हम संसार में खो जाते हैं। ग्रंथ को बंद करते ही उसके उपदेशों को विस्मृत कर देते हैं। उस पर मनन करते ही नहीं।