मानव मन स्वाभाव से ही द्वन्द्वपूर्ण है। वह सुख-दुख, प्रेम, घृणा जैसे अनेक विरोधी भावों के बीच झूलता रहता है। प्रेम पाने के लिए और प्रेम करने के लिए मानवीय मन की इस विवशता को जीतना ही होगा। प्रेम वाणी द्वारा अभिव्यक्त करने की वस्तु नहीं है अपितु अपने कार्यों के द्वारा उसे सत्य प्रमाणित करना पड़ता है। पे्रम पुरस्कार नहीं चाहता, बदला नहीं चाहता, प्रेम में केवल देना ही देना होता है, पाने की अपेक्षाएं वहां होती ही नहीं। यदि सच्चा प्रेम है तो मन रूपी पतंगे को विषय चिंतन रूपी दीपक की ओर मत बढने दो अन्यथा इसके सद्गुण एवं सदाचार रूपी पंख जल जायेंगे। इसे भौतिक चहल-पहल रूपी सड़क पर भी न जाने दे अन्यथा भोगेच्छा की ठोकर खाकर गिरेगा तो इसके विवेक रूपी दांत टूट जायेंगे। इसलिए यह तथ्य सदैव स्मरणीय है कि पवित्र प्रेम वही होता है, जहां वासना न हो जैसे भक्त का भगवान से, मां का पुत्र से, पिता का पुत्री से, भाई का बहन से और बहन का भाई से।