तुम शरीर नहीं हो, तुम्हारा शरीर भी नहीं है। यह तो पंचभूतो का है अर्थात आकाश, वायु अग्रि, जल और पृथ्वी का है। तुम कहते हो मेरे नेत्र हैं, मेरे कान है, मेरे हाथ हैं, मेरे पैर हैं, किन्तु तुम यह नहीं कहते कि मैं नेत्र हूं, मैं कान हूं, मैं हाथ हूं, मैं पैर हूं। तुम स्वामी हो यह शरीर सेवक है। इस शरीर को ‘मैं समझने की भूल मत करना। सत्य यह है कि मैं शरीर नहीं मेरा शरीर है। मैं मालिक हूं यह नौकर है। मैं देखता हूं अर्थात मैं दृष्टा हूं यह शरीर दिखाई पड़ता है। जो देखता जानता है वह मैं हूं और जो देखने जाने में आता है वह यह शरीर है। मृत्यु मेरी नहीं इस शरीर की होती है। मैं तो मृत्यु से परे हूं और मृत्यु भी क्या है संगठित तत्वों का रूपान्तर ही है। इसलिए मृत्यु से भय कैसा? परन्तु भयमुक्त तो वही रहेगा, जिसके कर्म श्रेष्ठ होंगे। सर्वोत्तम स्थिति तो यह है कि आत्मा को कोई शरीर न मिले वह आलागमन से मुक्त हो जाये, क्योंकि शरीर धारण करके कोई भी प्राणी सुखी नहीं। शरीर के रहते प्राणी बिना कर्म के नहीं रह सकता। कर्म करेगा तो पाप और पुण्य करेगा। पाप होंगे तो उनका फल दुख और पुण्य होंगे तो उनके फल सुख। शरीर नष्ट हो जाये आत्मा शेष रह जाये और आत्मा को कोई शरीर न मिले तो यही मुक्ति है, इसलिए प्रयास करे कि मुक्ति प्राप्त हो, जिससे न दुख प्राप्त हो न सुख केवल आनन्द की प्राप्ति हो।