आपके पास धन है, श्री है, आपके पास ऐश्वर्य है, सत्ता है, शासन है, परन्तु वह किसके कारण है। यह केवल आपके पुरूषार्थ के कारण ही नहीं है। परिश्रम तो बहुत लोग करते हैं, पुरूषार्थ भी करते हैं, यह सब पाने के लिए, परन्तु यह सम्मान तो प्रभु की कृपा से ही मिलता है, यह भगवान की निधि है, जो हमें प्राप्त हुई है।
ऐश्वर्य तो केवल ईश्वर का होता है, वह हमारा नहीं हो सकता। हम तो स्वयं को मिले हुए की चौकीदारी भर करते हैं।
वास्तव में होना तो यह चाहिए कि जो ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ है, उसे उचित स्थान पर पहुंचाओ। जहां प्यास है, वहां जल की तृप्ति पहुंचाओ। जो मन प्यार को तरसते हैं, उन पर अपना प्यार लुटाओ। पर यह होगा कैसे?
तुम अनाथ आश्रम में जाते हो और वहां पंक्तियां लगाकर खड़े बच्चों को वस्त्र बांटते हो भोजन या फल बांटते हो। वह तुम्हारे आगे हाथ फैलाकर खड़े रहते हैं। यह शोभा नहीं देता। देने वाला अभिमान का रोगी हो गया और लेने वाला हीन भावना से ग्रसित हो गया। उचित होगा आप चुपचाप गुप्त दान के रूप में आश्रम को दे दें और वहां व्यवस्थापक अपनी व्यवस्था के अनुसार वितरण करा दें। आप तो केवल प्रभु का धन्यवाद करे कि उसने आपको एक नेक कार्य का निमित्त बनाया।