हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसे खुशियां प्राप्त हो, सुख मिले। इसके लिए वह प्रयासरत भी रहता है, तरह-तरह के साधन अपनाता है, लेकिन फिर भी दुखी रहता है, परेशानियों का सामना करता है। आखिर क्यों ? क्योंकि वह पदार्थों में से सुख तलाशता है।
सांसारिक पदार्थ स्वयं नश्वर हैं वे क्या सुख दे सकते हैं? महलों में तो ये सब पदार्थ प्रचुरता में है फिर भी उनमें रहने वाले भी दुखी हैं, क्योंकि तृष्णाऐं वहां भी बनी हुई हैं, लालसाएं वहां भी प्रबल है, वहां भी दुख और बैचेनी है। व्यक्ति चाहे महल में रहता है, सामान्य मकान में रहता हो अथवा झौंपडी में रहता है तृष्णाऐं जहां होंगी वहीं दुख होगा। फिर सुखी कौन?
इस संसार में सच्चा संत ही सुखी है, क्योंकि वह सांसारिक पदार्थों की नि:स्सारता को जान लेता है, मन को जीत लेता है, मन को प्रभु से जोड़ लेता है। परिणामत: उसे संतोष प्राप्त हो जाता है, जो सारे सुखों का भंडार है। जब मन में संतोष आ गया तो फिर दुख कहां रहा? क्योंकि जो संतोषी है वह सदैव प्रभु की भक्ति में रहता है।
प्रभु का स्मरण उसे प्रत्येक क्षण रहता है। जो प्रभु भक्ति में आ गया उसे सुख ही सुख है, दुख और बैचेनी तो अज्ञानता में है, क्योंकि अज्ञानी कभी संतोषी हो ही नहीं सकता, जिसे संसार की नि:स्सारता का ज्ञान हो गया, उसे तो आनन्द ही आनन्द है।