दुख इस बात का है कि मानव योनि पाकर भी यह जीव अज्ञानी बना हुआ है, बिना सोचे समझे पाप करता जा रहा है। यह अज्ञानी यह नहीं सोचता कि अपनी ही छूरी है अपनी ही गर्दन है। किये हुए पाप कर्मों को संसार से छुपाया जा सकता है, परन्तु इन कर्मों का फल देने वाला प्रभु भीतर बैठा सब कुछ देख रहा है।
पाप कर्मों के कारण ही जीव अनन्तकाल तक आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। मनुष्य का यह अज्ञान नहीं तो क्या है, कि वे अक्ल के अंधे निर्जीव मूर्तियों और भगवान को प्रसन्न करने के नाम पर जीवित पशुओं की बलि चढाते हैं और अपने कर्मों का बोझ कम करने के स्थान पर इसे और बढा लेते हैं।
संत, महात्मा व मनीषी शास्त्रों के आधार पर हमें समझाते आ रहे हैं कि सभी प्राणी चाहे वे किसी भी योनि में हो परमात्मा की संतान है। सभी जीव, सभी मनुष्य चाहे उनका धर्म, भाषा, क्षेत्र, देश कोई भी हो सभी का सृजनहार वही एक प्रभु है।
सभी जीवों में प्रभु का प्रकाश समान रूप से प्रकाशित हो रहा है। फिर सोचिए हमारा आपस में क्या सम्बन्ध है? फिर यह बैर-भाव, यह मार-काट यह ऊंच-नीच ये घृणा के भाव क्यों?