Friday, December 27, 2024

सहज ऋण प्रवाह ने बदली ग्रामीण जीवन शैली

वित्तदायी संस्थाओं तक आम आदमी की सहज पहुंच और संस्थागत व गैर संस्थागत वित्तदायी संस्थाओं द्वारा आसानी से ऋण सुविधा उपलब्ध कराने का परिणाम है कि आज देश के सुदूर गांवों में भी रहन-सहन में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है। शहरों में उपलब्ध सुविधाएं अब गांवों में सहजता से उपलब्ध हो रही हैं। ऐसे में ग्रामीणों की रहन-सहन और उनकी सोच में बदलाव आया है। आज कोई भी व्यक्ति साधन-सुविधाओं की ओर देखता है और उन सुविधाओं को पाने के लिए कर्ज भी लेना पड़े तो व्यक्ति दो बार सोचता नहीं। यही समय और सोच का बदलाव है।

सांख्यिकी मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट इस बात की गहराई से पुष्टि करती है। भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय की व्यापक वार्षिक माड्यूलर रिपोर्ट के अनुसार शहरों की तुलना में अब गांवों में ऋण लेने वाले अधिक होते जा रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार गांवों में प्रति एक लाख पर 18714 लोगों ने किसी ना किसी तरह का कर्ज लिया है, वहीं शहरी क्षेत्र का यह आंकड़ा ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में कुछ कम 17442 है।

 

अच्छी बात यह है कि अब संस्थागत ऋणों की उपलब्धता सहज हो गई है पर गैर संस्थागत ऋण प्रदाताओं ने भी तेजी से पांव पसारे हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि इन गैर संस्थागत ऋण प्रदाताओं में कहीं ना कहीं पुराने साहूकारों की झलक दिखाई देती है। दूसरी चिंता का कारण संस्थागत ऋण में भी इस तरह के ऋणों की ब्याज दर कहीं अधिक है और संस्थागत हो या गैर संस्थागत ऋण, प्रदाता ऋण की एक किश्त भी समय पर जमा नहीं होती है तो दण्डनीय ब्याज, वसूली के नाम पर संपर्क और पत्राचार आदि का खर्चा और इसी तरह के अन्य छुपे चार्जेंज ऋण लेने वाले की कमर तोडऩे के लिए काफी हैं।

इसमें दो राय नहीं कि शहरी नागरिकों की तरह ग्रामीण नागरिकों के जीवन स्तर और रहन-सहन में सुधार होना चाहिए। शहरों से किसी भी क्षेत्र में ग्रामीण पीछे नहीं रहने चाहिए। सबसे अच्छी बात यह है कि ग्रामीणों और शहरियों में जीवन स्तर को लेकर जो स्तरीय भेद सामने आता है वह दिन प्रतिदिन कम रहा है।

आज फ्रीज, एयर कण्डीशनर, महंगे एन्ड्रायड मोबाइल या लक्जरी वाहन आसानी से गांवों में देखने को मिल जाते हैं। देखा जाए तो आज पहले वाले गांव नहीं रहे। यह विकास की तस्वीर है। यहां तक कि गांवों में निजी स्कूलों की पहुंच भी हो गई है। आज ग्रामीण भी शहरी नागरिकों की तरह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं और अच्छे खानपान पर ध्यान देने लगे हैं।

सहज ऋण उपलब्धता के साइड इफेक्ट भी हैं जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। सबसे पहला तो यह कि कुछ इस तरह के ऋण होते हैं जिन्हें होड़ में ले लिया जाता है और उसका सीधा असर कर्ज के मकडज़ाल में फंसने की तरह हो जाता है। सांख्यिकी मंत्रालय के आंकड़े यह भी बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में ऋण लेने में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं और ऋण लेने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ती जा रही है।

दरअसल, ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी क्षेत्र अधिकतर ऋण घरेलू जरूरतों को पूरा करने, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, खानपान और शानोशौकत से रहने के लिए पहनावे आदि के लिए लिया जाता है। गांव और शहरों में एक अंतर यह है कि शहरों में स्वास्थ्य सेवाएं सरकारी स्तर पर आसानी से उपलब्ध है, वहीं गांवों में स्वास्थ्य और शिक्षा पर अधिक खर्च करना पड़ता है। यही कारण है कि शिक्षा और स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए भी ग्रामीणों को ऋण लेना पड़ता है। यह सब कृषि कार्यों के लिए लिए जाने वाले ऋण से अलग हट कर है।

वैसे भी अधिकांश स्थानों पर संस्थागत कृषि ऋण लगभग जीरो ब्याजदर पर या नाममात्र के ब्याज पर उपलब्ध होता है पर नकारात्मक प़क्ष यह है कि बिना ब्याज के ऋण को समय पर नहीं चुका कर कर्ज माफी के राजनीतिक जुमले के चलते जीरो ब्याज सुविधा से भी वंचित हो जाते हैं। खैर यह विषय से भटकाव होगा।

शहरों की तरह गांव भी आधुनिकतम सुख-सुविधाओं से संपन्न हो इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। विकास की गंगा भी सभी तरफ  समान रूप से बहनी चाहिए, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता बल्कि यह सबका सपना है। ग्रामीण क्षेत्र में भी बढ़ते कर्ज के पीछे जो चिंतनीय बात है वह यह है कि कहीं ग्रामीण कर्ज के मकडज़ाल मेें फंस कर कुछ पाने की जगह खो अधिक देंगे, इसकी आशंका अधिक है। इसका बड़ा कारण यह है कि संस्थागत ऋण यानी बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण हों या फिर गैर संस्थागत ऋण, परेशानी इनकी वसूली व्यवस्था को लेकर होती है।

जितने ऋण देते समय सहृदय होते हैं, ऋण की किश्त की वसूली के समय उतने ही बेदर्द होने में कोई कमी नहीं रहती। शहरों में आए दिन रिकवरी एजेंटों के व्यवहार से दो-चार होते देखने में आ जाते हैं। गांवों में तो वसूली करने वालों के टार्चर के हालात बदतर ही होंगे। ऐसे में समय रहते इस विषय में सोचना होगा। सरकार और इस क्षेत्र में कार्य कर रहे गैर सरकारी संगठनों के सामने बड़ी जिम्मेदारी अवेयरनेस प्रोग्राम चलाने की है।

दरअसल, जब ऋण प्रदाता संस्था से ऋण लिया जाता है तो उस समय जो डाक्यूमेंट होता है वह इतना बड़ा और जटिल होता है कि उसे पूरा देखा ही नहीं जाता है और ऋण दिलाने वाला व्यक्ति निर्धारित स्थानों पर हस्ताक्षर करने पर जोर देता है। पढ़ा-लिखा और समझदार व्यक्ति भी पूरे डाक्यूमेंट से गो थू्र नहीं होता और परिणाम यह होता है कि बाद में दस्तावेज के प्रावधानों के कारण दो-चार होना पड़ता है।

हस्ताक्षर करने से हाथ बंध जाते हैं। सवाल यह कि अभियान चलाकर यह बताया जाना जरूरी है कि ऋण की एक भी किश्त चूक गए तो कितना नुकसान भुगतना पड़ जाएगा और यदि दुर्भाग्यवश दो-तीन किश्त नहीं चुका पाये तो हालात बदतर हो जाएंगे और जिस तरह से किसी जमाने में साहूकार के चंगुल में फंस जाते थे वो ही हालात होने में देर नहीं लगती।

दूसरा यह कि ऋण लेते समय प्राथमिकता भी साफ होनी चाहिए। केवल देखा-देखी ऋण लेने की होड़ भी नुकसानदायक है। गांवों में खेती की जमीन बेच कर अनावश्यक व दिखावे में राशि खर्च करने के दुष्परिणाम सामने हैं। ऐसे में बैंकों और एनजीओ को सामाजिक दायित्व समझते हुए अवेयरनेस प्रोग्राम चला कर लोगों को जागृत करना होगा, नहीं तो कर्ज का यह मर्ज गंभीर रूप लेने में देरी नहीं लगायेगा। जीवन स्तर सुधारने वाली यह सहज वित्त सुविधा साहूकार के कर्ज जाल में फंसने की तरह होकर बहुत कुछ खोने का कारण बन सकती है।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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