जैसे घृत और ईंधन डालने से अग्नि प्रदप्ति हो उठती है, बिल्कुल उसी प्रकार भोगों की तृष्णा से अविद्या तथा अज्ञानता बढ़ जाती है। जब तक उस पर विवेक रूपी जल नहीं पड़ेगा तब तक मन में कामनाओं की अग्नि प्रदप्ति होती ही रहेगी।
इसलिए भोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में विवेक द्वारा परिवर्तन करके अपनी तृष्णा जनित कामनाओं को शांत करें। ज्यौं-ज्यौं सांसारिक भोगों से आसक्ति बढ़ती है और त्यौं-त्यौं इनसे मोह हटता है, विरक्ति पैदा होती है, त्यौं-त्यौं सुखों की प्राप्ति होती है। अज्ञानी व्यक्ति जगत के भोगों की तृष्णाओं में सदा सुख की अनुभूति करता है, जबकि ज्ञानवान व्यक्ति इसके यथार्थ को जानकर आनन्द की प्राप्ति के लिए तृष्णाओं का त्याग कर देता है।
हम सभी मिलकर प्रभु से विनती करें कि प्रभु हमारे मन में भोगों के प्रति वितृष्णा का भाव पैदा कर दें। हमारा चिंतन पवित्र हो, मुख से सदा प्रिय तथा सत्यवाणी का ही प्रसारण हो, भूले से भी कोई शब्द मुंह से ऐसा न निकले, जिससे किसी को मानसिक पीड़ा हो। हमारी प्रज्ञा प्रबुद्ध हो। सत्कर्म के लिए हमारा दीप्त संकल्प बन पूर्ण रूप से प्रज्जवलित हो। हमारा विवेक सदा जागृत रहे। आपका प्रेरक मार्गदर्शन हमारी आत्मा के माध्यम से सदैव प्राप्त होता रहे।