Tuesday, December 24, 2024

दूर होनी चाहिए धार्मिक संकीर्णता

विदेशी विद्वान जहां भारतीय संस्कृति की महानता को देखकर अभिभूत हो उठते हैं, वहीं भारतीय समाज के पिछड़ेपन को देखकर आश्चर्यचकित भी रह जाते हैं। एक विदेशी विद्वान ने तो यहां तक कहा है कि- ‘भारत एक समृद्ध देश है, जहां कंगाल लोग निवास करते हैं।  समृद्ध इस मायने में कि हमारी संस्कृति के जीवन मूल्य उच्च ही नहीं महानतम हैं। हमारा सोचने समझने का ढंंग उनसे नितांत विपरीत है। भारतीय आदर्शों की दुनियां की कोई संस्कृति तुलना नहीं कर सकती परंतु भारतीय नागरिकों में व्यक्तिवाद और संकीर्णता की जितनी क्षुद्रताएं विद्यमान हैं उतनी अन्यत्र कहीं नहीं। ऊंच-नीच, जाति-पाति, वर्णभेद, लिंगभेद और अनुदारता के हीन तत्व भी भारतीय समाज में प्रचुरता से मिलते हैं।
इन सामाजिक त्रुटियों के कारण भारतीय संस्कृति पर पिछड़ेपन का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। पिछड़ापन है तो समाज के चिंतन और लोगों की आस्थाओं में है। दुर्बल है तो वह काया जिसके द्वारा लौकिक विकास और स्थूल उपलब्धियों की प्राप्ति और सशक्त आत्मा के होते हुए भी शरीर क्षीणता को क्षम्य दोष  नहीं कहा जा सकता, वह अक्षम्य  अपराध ही बना रहेगा और उसका दुष्परिणाम दंड के रूप में ही भोगना पड़ेगा। समाज में व्याप्त अनुदारता और संकीर्णता के दोषों  के कारण   ही हमारे समाज को मध्यकाल में पराधीनता का दुखद दंड मिला।
जिन दिनों इस देश में विदेशी आक्रमणकारी आए, तब उनका उद्देश्य लूटमार कर थोड़ा बहुत धन ले जाना ही होता था। वे संख्या में थोड़े थे और साधन भी उनके पास स्वल्प ही थे किंतु हमारी कमजोरियों के कारण ही उन्हें यहां का शासक बनने की सूझी और वे शताब्दियों तक यहां शासन करते रहे। यहां तक कि सनकी और पागल दिमाग के व्यक्ति बेखटके अपना शासन चलाते रहे।
घटना तेरहवीं शताब्दी की है जो इस बात का प्रमाण  है कि हम अपनी मूर्खताओं के कारण  किस प्रकार उन्हीं व्यक्तियों को अपना शत्रु बनाते रहे, जो समाज का सिर गर्वोन्नत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते थे। तब दिल्ली की गद्दी पर मुहम्मद तुगलक आसीन था, जिसकी मूर्खतापूर्ण  हरकतों के कारण    इतिहासकारों ने आगे चलकर उसे सनकी और पागल बादशाह करार दिया।
मुहम्मद तुगलक के सनकीपन से शासन प्रबंध में भी अस्तव्यस्तता आयी और दिल्ली के अधीन रहने वाले सूत्रों के संचालक भी अपने को स्वतंत्र कहने  लगे। बंगाल का हाजी इलियास उन्हीं सूबेदारों में से था, जो अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर चुके थे। अपनी स्वतंत्रता सिद्ध करने के लिए उसने दिल्ली से अपना संबंध तोड़ लिया और शमसुद्दीन की उपाधि धारण कर स्वतंत्र रूप से राजकाज चलाने लगा। शमसुद्दीन ने अपनी जड़ें मजबूत बनाने के लिए बंगाल के प्रमुख व्यक्तियों को अपने पक्ष में करना आरंभ किया।
इसके लिए उसने प्रभावशाली व्यक्तियों को बड़ी बड़ी जागीरें बांटी, खास खास लोगों को शासन में उच्च पदों पर नियुक्त किया और पुराने जागीरदारों को और भी महत्वपूर्ण ओहदे दिये। इन्हीं जागीरदारों  में से एक थे नयनचंद्र राय। नयनचंद्र राय भादुड़ी वंश के जागीरदार थे और उनकी जागीर में भोजनीर का इलाका आता था। शमसुद्दीन को अपनी वफादारी और नीति निपुणता से प्रभावित कर नयनचंद्र राय ने राज्य के सभी जागीरदारों में अपना उच्च स्थान बना लिया और बादशाह के यहां फौजदार भी बन गए। इन्हीं  नयनचंद राय के सुपुत्र का नाम कालाचन्द राय था। जो बहुत ही शक्तिशाली, बुद्धिमान और मेधावी था। एक तो पिता का प्रभाव, दूसरे स्वयं अपनी योग्यता, इन दोनों के बल पर कालाचंद भी शाही सेना में फौजदार हो गया।
बादशाह उसके गुणों से इतना प्रभावित था कि चाहता था कालाचंद हमेशा उसके पास ही रहे। यही नहीं बादशाह ने कालाचंद को पूरी तरह अपना बना लेने के लिए राजकुमारी दुलारी बीबी का विवाह उसके साथ कर दिया।
यद्यपि कालाचंद हिन्दू होते हुए एक मुसलमान कन्या से विवाह नहीं करना चाहता था। इसके लिए उसने बादशाह के प्रस्ताव को दृढ़तापूर्वक ठुकरा दिया था और बादशाह ने शाही आज्ञा की अवहेलना करने के अपराध में कालाचंद को मौत की सजा सुना दी थी किंतु राजकुमारी बीबी स्वयं कालाचंद से प्रेम करती थी और उसे मन ही मन अपना पति स्वीकार कर चुकी थी। जब दुलारी को यह पता चला कि कालाचंद को मौत की सजा दी गई है और शाही फरमान पूरा करने के लिए उसे वधस्थल पर ले जाया जा रहा है तो वह राजमहल की मर्यादाओं को तोड़कर वधस्थल पर गई और कालाचंद से पहले स्वयं को मारने के लिए कहा।
राजकुमारी के इस प्रेम और उत्सर्ग ने कालाचंद को इतना प्रभावित किया कि उसने अपनी जिद छोड़ दी और दुलारी बीबी से विवाह करना स्वीकार कर लिया। दुलारी के इस कृत्य की सूचना बादशाह को जैसे ही मिली, शाह शमसुद्दीन ने कालाचंद को दंड मुक्त कर दिया। उसी दिन कालाचंद और दुलारी बीबी का हिन्दू पद्धति से विवाह हो गया।
यहां तक तो सब ठीक हुआ। दुलारी बीबी ने अपनी पति की भावनाओं का आदर करते हुए हिन्दू पारिवारिक मर्यादाओं को अपना लिया था, किंतु उस समय के पुरातन पंथी ब्राह्मण और धर्म के ठेकेदारों की दृष्टि में कालाचंद का दुलारी बीबी से विवाह अधार्मिक विवाह था और इसके लिए उन्होंने कालाचंद को जाति बहिष्कृत कर दिया। कालाचंद ने यह  अपमान का घूंट भी पिया। उसने वापस धर्म में लेने के लिए पंडितों से शास्त्रीय विधान भी पूछे, आज्ञानुसार प्रायश्चित करने का उत्साह भी दर्शाया पर कालाचंद की धर्मभीरूता ने पंडितों को और भी अभिमानी बना दिया। एक बार कालाचंद किसी मंदिर में दर्शन के लिए गया और वहां के पण्डों तथा पुजारियों को इस बात का पता चला तो वे दौड़े आए और उन्होंने कालाचंद को अपमानित कर वहां से भगा दिया। उसे भगवान के विग्रह का दर्शन नहीं करने दिया।
यह अपमान कालाचंद के मन में शूल की भांति चुभ गया। उसने विचार किया कि जब हिन्दू समाज ही मुझे  नहीं अपनाता तो मैं ही हिन्दू समाज के प्रति इतना लगाव क्यों रखूं? उसके मन में अपने अपमान का बदला लेने की बात रह रह कर फुफकारने लगी। इस घटना से विक्षुब्ध होकर कालाचंद ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और अपना नाम कालाचंद से बदलकर मुहम्मद फर्मूली रख लिया। कालाचंद द्वारा किया गया यह धर्म परिवर्तन भविष्य के उन पृष्ठों की फडफ़ड़ाहट थी, जिसमें उसका आतंक काला पहाड़ के रूप में छाया।
एक समय का धर्मनिष्ठ और श्रद्घा भावनाओं से परिपूरित कालाचंद अब हिन्दू धर्म का जानी दुश्मन बन गया। कुछ दिनों बाद बादशाह शमसुद्दीन ने कालाचंद को उड़ीसा पर आक्रमण करने  के लिए भेजा। उड़ीसा पर उन दिनों राजा मुकुन्ददेव का राज्य था। मुहम्मद फर्मूली, जिसे लोग अब कालापहाड़ कहकर पुकारने लगे थे, उड़ीसा पर चढ़ दौड़ा। उड़ीसा को बाएं हाथ से फतह कर कालापहाड़ ने वहां की हिन्दू जनता को बहुत बुरी तरह लूटा और कत्लेआम मचा दिया।   उसे रास्ते में जो भी मंदिर मिले, वह उन्हें तोड़ता फोड़ता आगे चला गया।   उसे जो मंदिर मिले उन सभी को उसने लूटा और असंख्य हिन्दूओं को बलात् मुसलमान बनाया।
जौनपुर के नवाब का तब दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से काफी पुराना युद्ध चल रहा था। कालापहाड़ की वीरता से प्रभावित होकर जौनपुर के नवाब ने शमसुद्दीन की अनुमति पाकर कालापहाड़ की मदद मांगी  तो कालापहाड़ जौनपुर के नवाब की सहायता के लिए सेना लेकर रवाना हुआ। बहलोल लोदी को जब इसका पता चला तो उसने बड़ी चालाकी से कालापहाड़ को पूरी तरह गिरफ्त में ले लिया। यदि वह चाहता तो कालापहाड़ को मरवा देता या बंदी बनाकर रखता किंतु उसने ऐसा कुछ नहीं किया उल्टे कालापहाड़ का शाही ठाठ-बाट से स्वागत सत्कार किया और कालापहाड़ से अपनी लड़की की शादी कर उसे पूरी तरह से अपने पक्ष में कर लिया।
यही नहीं बहलोल लोदी ने कालापहाड़ को शाही सेना का सेनापति भी बना दिया तथा उसी के सेनापतित्व में जौनपुर के नवाब पर आक्रमण करवाया। कालापहाड़ ने बड़ी चतुरता और वीरता से जौनपुर के नवाब को हराकर उसके राज्य को दिल्ली सल्तनत में मिला दिया। बहलोल लोदी से मिल जाने का कारण यह नहीं था कि कालापहाड़ किसी प्रलोभन में आ गया हो बल्कि उसने तो देखा था कि हिन्दुओं का प्रसिद्घ तीर्थ काशी, जौनपुर में आता था और इस प्रकार वह प्रतिशोध की प्रतिज्ञा और भी आसानी से पूरी कर सकता था। जौनपुर जीत लेने के बाद कालापहाड़ ने काशी में प्रवेश किया तो वहां भी भारी कत्लेआम मचाया।
बताया जाता है कि काशी में अपना क्रोध बरपा करने के बाद कालापहाड़ न जाने कहां चला गया? संभव है उसे अपनी आत्मा की प्रताडऩा सहनी पड़ी हो कि जिस धर्म का वह निष्ठावान अनुयायी रहा था, उसी का  वह इतना घोर शत्रु क्यों बन गया? इस क्यों के उत्तर में कालापहाड़ उतना दोषी नहीं है जितना कि तत्कालीन  हिन्दू समाज। जिसने अपनी संकीर्णता और अनुदारता के कारण एक निष्ठावान धर्म अनुयायी को धर्म का शत्रु बना दिया। कालापहाड़ का उदाहरण इस बात का साक्षी हैै कि धर्म संस्कृति किसी समाज को विभाजित नहीं करती और न ही उसे कमजोर बनाती है। कमजोर बनाती है समाज की संकीर्णता और रूढि़वादिता।
उस युग में इस तरह के न जाने कितने काले पहाड़ समाज की संकीर्णता के कारण उत्पन्न हुए होंगे। यह संकीर्णता ही किसी समाज को घुन की तरह खा डालती है और उसे निस्तेज बना देती है। इस दृष्टि से हमारा समाज आज भी कोई बहुत उदार और तेजस्वी नहीं बन सका है।
जाति-पाति, ऊंच-नीच, ब्राह्मण-शूद्र, सवर्ण-असवर्ण की कितनी ही भेदभरी खाइयां हैं, जिनसे समाज आगे बढऩे के बजाय पीछे लौटने लगता है और प्रगति के बजाय पिछड़ेपन का शिकार होने लगता है।
पं. लीलापत शर्मा-विभूति फीचर्स
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