हितोपदेश का एक श्लोक है ‘उल्लूकयातुुं, शुषलूकयातुम् जहि श्वयातुम् अर्थात तुम्हारा स्वाभाव और तुम्हारा व्यवहार उल्लू, भेडिया तथा कुत्ते जैसा है तो समझना आप मनुष्य नहीं है, पशुता का आवरण आपने ओढ लिया है।
उल्लू को स्वार्थी माना गया है। वह सदा अंधकार में रहना पसंद करता है इसलिए स्वार्थ सिद्धि को अपना उल्लू सीधा करना एक लोकोक्ति में कहा गया है। भेडिये का स्वाभाव है धोखा देकर हमला करना और दूसरे जीवों का रक्त पीना।
कुत्ते का स्वाभाव है अपनी ही जाति के कमजोर को दबाना, सताना। जिस मनुष्य की रोटी में गुनाहों का खून है, दूसरों को धोखा देकर अर्जित की गई है, जिसमें दूसरे के आंसू छिपे हुए हैं, जिसकी कमाई में पाप भरा हुआ है वह आदमी कभी शान्ति से, सुख से जीवन नहीं जी पाता।
ऐसा व्यक्ति पशुओं से भी गया गुजरा है, क्योंकि पशुओं में वह विवेक नहीं होता जो ईश्वर ने मनुष्य को प्रदान किया है। उसे अच्छा-बुरा पहचानने की शक्ति दी है, किन्तु यह वरदान पशु को नहीं मिला। हमें पशुता से ऊपर उठना चाहिए। यदि मनुष्य भी वहीं करे जो पशु करता है वह अपने से निर्बल और कम बुद्धि वालों को सताये, जो धनी है वे निर्धनों को सताए, उनका शोषण करे, ऊंचा पद पाकर उसका दुरूपयोग करे समझ लेना यह पशुता है।