Sunday, May 12, 2024

स्वामी विवेकानंद

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राष्ट्र की ऊंचाई उसके नागरिकों के मनोबल की ऊंचाई के सहारे आंकी जाती है। स्वामी विवेकानंद एक अनन्य राष्ट्रभक्त थे। उन्होंने विश्व के अनेक देशों में भ्रमण करके भारत वर्ष के महत्व को दर्शाया था। आज भी उन्हें पूरा विश्व स्मरण करता है। वह जानते थे कि आध्यात्म और भगवद भजन धार्मिक प्रवृत्ति के लिए आवश्यक है किंतु देश की स्वतंत्रता के लिए स्वस्थ शरीर युक्त पुरुषों का होना भी उतना ही आवश्यक है।

उनका मन्तव्य यह भी रहा कि गीता पाठ करने की अपेक्षा व्यायाम करने में तुम स्वर्ग के अधिक समीप पहुंच सकोगे। स्पष्टत: गीता पाठ के माध्यम से ईश्वर में लीन होना ही तो है किंतु शरीर स्वस्थ होगा तो अनेक महत्वपूर्ण काम भी किए जा सकते हैं, जिनसे राष्ट्र और समाज का हित हो। यही कर्म आनंद उपलब्ध कराता है। परतंत्र भारत में दबे हुए व्यक्ति अंग्रेज सरकार के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होने का दावा करते थे जबकि वे लोग दासता के प्रतीक ही थे।

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उनका लक्ष्य वे कुछ भी समझते रहे हों किंतु परिणाम भी मात्र दासता ही था। यही कारण था कि स्वामी जी कहा करते थे कि गुलामी को कर्तव्य समझ लेना कितना आसान है जबकि कर्तव्यनिष्ठा उन लोगों से बहुत दूर थी। देशवासियों को उन्होंने यही पाठ पढ़ाया कि जिसे अपने आप में विश्वास नहीं है, उसे भगवान में भी विश्वास नहीं हो सकता। वास्तविकता यही थी कि गुलामी से मुक्त होने के लिए प्रत्येक मनुष्य को स्वावलम्बी और आत्मविश्वासी होना आवश्यक था।

स्वामीजी द्वारा आत्मविश्वास का जो अलख जन-जन के मन मस्तिष्क में उस समय जगाया गया वह आज भी अपरिवर्तित ही है। केवल आत्मविश्वासी ही अपने अभियान में सफल हो पाते हैं। आज जब भारतवासी स्वतंत्र हैं, इस राष्ट्र में उपलब्ध व्याधियों से छुटकारा पाने के लिए यदि आत्मविश्वास का सम्बल मनुष्य मात्र के साथ हो अथवा रहे, शरीर स्वस्थ हो और स्वतंत्र रहने की इच्छा हो तो देश की प्रगति को कोई नहीं रोक पाएगा। संघर्ष करने के लिए स्वामीजी ने कहा था कि इस बात की चिंता मत करो कि स्वर्ग और नरक है या नहीं। इस बात की भी चिंता मत करो कि आत्मा का अस्तित्व है या नहीं।

इस झगड़े में भी मत पड़ो कि विश्व में कोई अविनाशी सत्ता है या नहीं पर संसार हमारे नेत्रों के सम्मुख है और वह कष्टों से भरा है। उनकी मान्यता थी कि मानव मात्र भी बुद्ध के समान संसार में प्रविष्ट हों और सांसारिक कष्टों को कम करने के लिए संघर्ष करें अथवा उसी प्रयत्न में मर जाएं, अपने को भूल जाएं, यही पहला पाठ जीवन में सीखना चाहिए तत्पश्चात विचार लें कि चाहे आप आस्तिक हैं या नास्तिक, द्वैतवादी हैं या अद्वैतवादी, आपका धर्म ईसाई हो या मुसलमान।

प्रत्येक के लिए एक ही पाठ अनिवार्य है और वह है अपने संकीर्ण अहम् को समाप्त करके विराट आत्मा का निर्माण करना। आत्म विवेचना के संदर्भ में स्वामीजी का कथन था कि स्वयं का अच्छा या बुरापन दूसरे की दृष्टि से मत नापो, ऐसा करना अपने मन की दुर्बलता दिखाना है। मनुष्य कैसा है, यह आंकलन वह स्वयं करे तो सही होगा।
एम.एन. त्रिवेदी- विभूति फीचर्स

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