संसार में टिकने वाली वस्तुएं कोई नहीं। शरीर में से जब प्राण निकलने लगता है, तब आंख, नाक, कान आदि सभी इन्द्रियां भी भागने लगती है फिर हम इन्हीं में क्यों उलझे रहे, हम परमात्मा तत्व को पाने का प्रयत्न क्यों न करें? जिसके बिना यह सब रहते हुए भी नहीं रहता, होते हुए भी नहीं होता फिर इन सबको अपनी मानने की भूल क्यों करे, आप किराये के मकान में रहते हैं, उसे यदि अपना मानने की भूल करेंगे तो मूर्खता ही होगी। यह शरीर भी आत्मा को कुछ समय के लिए मानो किराये पर मिला है।
स्वामी तो परमात्मा है। संसार की सब वस्तुए परमपिता परमात्मा की ही तो है, उसकी वस्तुओं को अपनी समझना चोरी के समान है और जो अपने पास नहीं है, दूसरों के पास है उसे हथियाने अथवा उन्हें अपनाने का प्रयत्न करना तो दोहरी चोरी है। जो यह जानता है उसके सामने संसार के सकल पदार्थों को त्यागपूर्वक भोग करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प नहीं है। इस तथ्य को समझाने के लिए ईषोपनिषद में यह शिक्षा दी गई है ‘ईश्यावास्यम् इदम् सर्वम् यत्किंच जगत्याम् जगत तेन त्यक्तेन भुंजिथा मागृघ कस्यवित धनम् अर्थात संसार में जो भी पदार्थ हैं सब ईश्वर के हैं, उन्हें त्यागपूर्वक भोगे किसी दूसरे के धनादि किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास मत करो अर्थात दूसरों के धन पदार्थों पर ललचाई दृष्टि न रखो। इस मंत्र का यह भी भाव है कि संसार के पदार्थों को भोगो तो परन्तु उनमें आसक्त न हो।