जब किसी घर में कोई सन्तान जन्म लेती है तो उसे सम्बोधन किया जाता है ‘शुद्धोसि, बुद्धोसि, निरंजनसि, संसार माया परिवर्जितोऽसि अर्थात हे पुत्र तुम शुद्ध और पवित्र हो, बुद्धिमान हो, सुन्दर हो और संसार की मोहमाया से निर्लिप्त हो। बचपन में दिये गये इन अलौकिक संस्कारों से संतान महान बनेगी, किन्तु यह गुण तभी फलित होगा जब ये गुण हमारे (अभिभावकों के) भीतर भी विद्यमान होंगे। सैद्धान्तिक रूप से जब हम स्वयं संस्कारित होंगे, तभी सन्तान भी संस्कारित होगी। मनीषी और हमारे धर्म ग्रंथ माता को शिक्षा देते हुए कहते हैं ‘ऐ जननी माता का निर्माण तेरे हाथ में है। तू केवल जननी नहीं निर्मात्री भी है अर्थात तू जैसा चाहेगी, जैसा सन्तान का निर्माण करना चाहेगी, तेरी सन्तान वैसी ही बनेगी। तू चाहे तो राम और श्रवण जैसा पितृ भक्त बना दे अथवा कंस जैसा पितृद्रोही। भगत सिंह जैसा बलिदानी बना अथवा जयचन्द जैसा राष्ट्रद्रोही। यह सब तेरे हाथ में है। मातृत्व का सच्चा गौरव प्राप्त करना है तो भक्त दानी अथवा शूरवीर राष्ट्रभक्त ही पैदा कर नहीं तो बांझ रहना ही ठीक है।