दो पंथ है। पहला निवृति पंथ अर्थात संसार से पूर्णतया निवृत होकर, संसार को पूर्णतया त्यागकर जीवन जीना। दूसरा पंथ है प्रवृत्ति पंथ अर्थात संसार के मध्य ही रहो, संसार के वैभव के बीच रहकर जीवन यापन करो, पलायनवादी न बनो, परन्तु संसार के भोग पदार्थो की निस्सारिता को अवश्य जानो, समझो। जंगल में वन में भागने की आवश्यकता नहीं। जंगल में भागने से कुछ बनने वाला नहीं है, भागने से बात नहीं बनेगी, जानने से बनेगी। जन के मध्य रहो अथवा वन के मध्य रहो मन की गांठ तो खोलनी ही होगी, वैर-भाव, द्वेष, ईर्ष्या का कांटा तो निकालना ही होगा। वन में रहो अथवा जन में रहो, सहारा तो आध्यात्म का ही लेना होगा। अपने उत्थान तथा उद्धार के लिए जीवन को ऊंचा उठाने के लिए आध्यात्म एक सीढी है। हमारी आध्यात्मिक यात्रा तभी आरम्भ होगी, जब जीवन में बैर-भाव छूटेगा, शत्रुता का क्षेत्र सीमित होते-होते समाप्त हो जायेगा और मित्रता का क्षेत्र विकसित विस्तृत होता जायेगा। सत्य और ईमानदारी जो आध्यात्म के आधार हैं, को जीवन में आत्मसात कर लिया जायेगा।