‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया’ यह हमारे धर्म और हमारी संस्कृति का मूल मंत्र है। हम संसार के सभी जीवों के सुख और निरोगता की कामना करते हैं, परन्तु आज का इंसान इससे विमुख होकर उस स्तर पर जीवन जीने लगा है, जहां केवल अपने बारे में ही सोचा जाता है।
चिन्तन का विषय यह है कि अपने लिए जीना भी कोई जीना है, यह तो मानवीय सिद्धांतों के विपरीत है, संसार में प्रभु के सच्चे भक्त भी हैं, वें भक्ति का प्रदर्शन नहीं करते, बल्कि सच्चे मन से परोपकारी होते हैं। वे सारे संसार का कल्याण चाहते हैं और इसके लिए तन-मन-धन से योगदान देते हैं। तन-मन-धन का मूल्य और महत्व तभी है, जब इन्हें परोपकार में भी लगाया जाये, नेकी के कार्यों में समर्पित किया जाये।
संत कबीर कहते हैं ‘कबीर दिये जा जब तक तेरी देह, देह खेह हो जायेगी तो कौन कहेगा दे’। अर्थात हे मानव तेरे शरीर के जीवित रहते तू परोपकार कर ले, जब तेरा शरीर मिट्टी में मिल जायेगा। तब तुझे कौन कहेगा कि परोपकार कर। इसलिए हे मानव जब तक इस शरीर में ईश्वर ने तुझे सामर्थ्य दे रखा है तू अपने जीवन को केवल अपने लिए ही नहीं परहित में, परोपकार में भी लगा।