पुराने जमाने में ऐसा होता था कि महान लोग जंगलों में अपना स्थान बना लेते थे और नगरों से लोग वहां जाकर शिक्षा-दीक्षा लेते थे अभ्यास भी करते थे। धीरे-धीरे ऋषियों की परम्पराएं समाप्त हो गई। आज ऐसा हो रहा है कि साधू सन्यासी जब गृहस्थ में थे तो घर बनाते रहे। साधू हो गये तो आश्रम बनाने शुरू कर दिये। घर के बाद आश्रम में रहने लग गये। अन्तर कुछ भी नहीं है। यद्यपि लोगों में आश्रमों के प्रति भी पर्याप्त श्रद्धा है, किन्तु वहां प्रयोगशाला बन जाती तो कितना सुन्दर होता। आश्रम यदि प्रयोगशाला बन जाये तो भारत में बहुत बड़ी संस्कति को जिंदा किया जा सकता था और भारत का भाग्य उदय किया जा सकता था, जिसके द्वारा आरत में जगह-जगह ऋषि-मुनि मिलते, बच्चों के अन्दर संस्कार पैदा होते। जिज्ञासु लोग प्रकृति के वातावरण में इन सन्यासियों के मार्गदर्शन में ध्यान समाधि लगाना सीख जाते। ऐसे आश्रमों की बहुत अधिक आवश्यकता है। आश्रमों को प्रयोगशाला बनाइये, जहां रहकर व्यक्ति शान्ति की अनुभूति करे। वहां साधना सीखे, तपस्या करे, अभ्यास करे फिर इन शिक्षाओं को लेकर घर जाये ताकि परिजनों में भी अभ्यास का क्रम चलता रहे।