लखनऊ। उप्र के उपचुनाव के नतीजे एक तरफ सपा-भाजपा के साख की लड़ाई बन गयी है। यह चुनाव 2027 के विधानसभा चुनाव का लिटमस टेस्ट भी माना जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ बसपा के साख बचाने का भी चुनाव है। यदि इस चुनाव में भी बसपा का वोट प्रतिशत कम हुआ तो फिर उसके मतदाता बिखर जाएंगे। कांग्रेस ने पहले ही सपा के समर्थन में अपना एक भी उम्मीदवार न उतारकर सिर्फ चुनाव परिणाम का इंतजार कर रही है।
जानकारों की मानें तो यदि सपा की सीटें कम होने के इंतजार में कांग्रेस है, क्योंकि सपा की सीटें कम होने पर वह 2027 के विधानसभा में अपने मनमाफिक सीटें ले सकेंगी। यदि समाजवादी पार्टी की सीटें अपेक्षा से अधिक आ गयीं तो कांग्रेस को सपा के इशारे पर ही प्रदेश में चलने को मजबूर हो जाएगा। कांग्रेस पास उप्र में इतना दम भी नहीं है कि वह अपने दम पर चुनाव लड़कर यहां कुछ विशेष कर सके।
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वहीं 2014 से ही लगातार घर रहे जनाधार से बसपा के राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान लगने लगा है। इससे बसपा की चिंता भी काफी बढ़ गयी है। बार-बार नये-नये आधार बनाने के बावजूद बसपा के जनाधार में कोई इजाफा नहीं हो रहा है। उसके मतदाता बिखरते जा रहे हैं। यदि इस उपचुनाव में भी बसपा के जनाधार घटे तो बसपा अपने कोआर्डिनटरों पर ठीकर फोड़ सकती है, जिससे मायावती की साख बचायी जाय।
भाजपा के लिए जहां सीटें बढ़ाने और 2027 की जमीन तैयार करने का दबाव है। वहीं समाजवादी पार्टी को यह दिखाना है कि पिछले लोकसभा चुनाव की स्थिति उप्र में बरकार है। यही कारण है कि दोनों ही पार्टियों ने अपने-अपने दिग्गजों को चुनाव में झोंक रखा है। समाजवादी पार्टी भाजपा के हर बात का जवाब देने में पीछे नहीं हट रही है। इससे लड़ाई दिलचस्प हो गयी है।
यदि भाजपा उप चुनाव में पिछले इतिहास को भी दोहराने में कामयाब नहीं होती है तो यहां बहुत बड़े स्तर पर बदलाव की संभावनाएं भी बढ़ जाएंगी। इससे भी भाजपा का प्रदेश नेतृत्व वाकिफ है और सभी लोग तालमेल मिलाकर चल रहे हैं, जिससे चुनाव में एकजुटता दिखाया जा सके।