अफ़सर नाम का प्राणी वह है, जो दफ्तरों में पाया जाता है। वैसे तो सरकारी, अर्ध-सरकारी, और गैर-सरकारी
सभी दफ्तरों में यह पाया जाता है। कुछ अर्जित, कुछ जबरन, कुछ जुगाड़ू, और कुछ कबाड़ी — हर प्रकार के
अफ़सर होते हैं। अफ़सर काम नहीं करते, काम की चिंता करते हैं। गधे की तरह जिम्मेदारियों का बोझ ढोते
हैं—जिम्मेदारी काम करवाने की और साथ में काम की चिंता का बोझ उठाने की।
इनका कोई समय नहीं होता; ये समय और स्थान से परे, ब्रह्मस्वरूप होते हैं। ये ऑफिस के कण-कण और जड़-
चेतन में विराजमान रहते हैं। इसलिए कुर्सी पर दिख सकते हैं, नहीं भी दिख सकते हैं, या दिखते हुए भी नहीं
दिख सकते हैं और नहीं दिखते हुए भी दिख सकते हैं।
अफ़सर को कभी भी नौकर मत समझिए। इनके चाल-ढाल और रंग-ढंग सब अलग और जुदा-जुदा होते हैं। ये तो
सारी जनता को अपना नौकर समझते हैं। नौकर के साथ चाकर जुड़ा होता है, लेकिन अफ़सर के साथ क्लब,
विदेशी दौरे, महंगी शराब, और अनगिनत मीटिंग्स जुड़ी होती हैं।
अफ़सर का मुख्य भोजन रिश्वत है। ये सर्वाहारी होते हैं। वैसे तो रिश्वत में विविधता की परवाह नहीं करते, जो
भी मिले खा सकते हैं। कुर्सी, टेबल, फाइल, पेन, पेंसिल, कूड़ा-कचरा, यहाँ तक कि सड़कें और पुल तक निगल
सकते हैं। इनका पेट बहुत बड़ा होता है। इनके जूते भी बड़े आकार के होते हैं, जो हर समय इनके अधीनस्थ
कर्मचारियों पर चलते रहते हैं। ये जूते कभी थकते नहीं, कभी रुकते नहीं।
ये सोचते बहुत हैं—दफ्तर के बारे में, काम के बारे में। सोचते-सोचते इन्हें अक्सर झपकी लेनी पड़ती है। बिना
झपकी के, इनके ख्याल बेलगाम हो जाते हैं। पलकों में ख्यालों को बंद कर लेते हैं और फिर ख्यालों की उल्टी
करने के लिए मीटिंग बुलाते हैं। दफ्तरों में, फाइलों के ढेर के पीछे, आपको ये अक्सर झपकी लेते हुए मिलेंगे।
इनका मुख्य काम मीटिंग करना है। हर समस्या का हल मीटिंग ही होती है। किसी भी काम को टालने का, और
कोई उपाय न हो तो मीटिंग; न करने का कोई और बहाना न हो तो मीटिंग। ये कोई भी काम अपने कंधे पर नहीं
लेते और क्रेडिट से कोसों दूर रहते हैं। किसी भी निर्णय से पहले ये मीटिंग जरूर करते हैं, ताकि किसी भी
असफलता का ठीकरा दूसरों के माथे पर फोड़ा जा सके।
अगर मीटिंग से समय मिले तो ये दौरे पर निकल जाते हैं। दौरे कई प्रकार के होते हैं, जो ज्यादातर मौसम के
अनुसार तय किए जाते हैं। गर्मी हो तो किसी ठंडे स्थान पर और सर्दी हो तो किसी गर्म स्थान पर।
इनको ऑटोग्राफ देने का कोई शौक नहीं होता; फाइलों में इनके ऑटोग्राफ माँगे जाते हैं।
ये शान से कहते हैं, जैसे दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन ने कहा था—जाओ, पहले उसके ऑटोग्राफ लाओ, फिर उसके, फिर उसके… तब मेरे पास आना तुम… आखिर में मेरे
ऑटोग्राफ लेना।
बड़े अफ़सर बड़े दौरे पर होते हैं, कभी-कभी विदेश तक चले जाते हैं। सेमिनार, जिमखाना, डाक बंगला और रेस्ट
हाउस में इन्हें बहुतायत से देखा जा सकता है। अफ़सर को सबसे ज़्यादा डर यूनियन वालों से लगता है। इन्हें
मालूम है कि इनसे बड़ा अफ़सर इनका तबादला कराए न कराए, यूनियन का अध्यक्ष ज़रूर करवा सकता है। डर
इस कदर है कि अगर यूनियन अध्यक्ष की सलामी का भी जवाब नहीं दिया, तो इन्हें डर है कि यूनियन हड़ताल
पर जा सकती है।
हर अफ़सर के ऊपर एक अफ़सर होता है, जो उसे हड़काता है। यह इस हड़कन को अपने पास नहीं रखते, तुरंत
निर्लिप्त भाव से नीचे वाले को ट्रांसफर कर देते हैं। नीचे वाला बाबू को, और बाबू उसे अपनी जेब में रखकर
हाथों से मसल देता है, जैसे चींटी को मसल रहा हो।
हर अफ़सर के ऊपर एक जासूस होता है, और वो इसकी बीवी के सिवा कोई दूसरा नहीं होता। और हर अफ़सर
के नीचे दो-चार जासूस होते हैं, जो दिन भर ऑफिस की सभी जायज़-नाजायज़ गतिविधियों की गंध इन्हें सूंघाते
रहते हैं।
अफ़सर को घर जेल लगता है और दफ्तर एक पिकनिक स्पॉट। अफ़सर के दफ्तर में घड़ी भी अफ़सर के हिसाब
से चलती है। सर्दियों में धूप में मूंगफली खाते हुए दिखेंगे, और गर्मियों में ए.सी. की ठंडी हवा खाते हुए। अफ़सर
जहाँ होता है, वहीं दफ्तर लग जाता है, बिल्कुल शहंशाह की तरह। जब तनाव होता है, तो मीटिंग होती है। मूड
फ्रेश हो, तो मीटिंग होती है। कुछ नहीं हो रहा हो, तब एक मीटिंग तो ज़रूर आयोजित करनी होती है, सिर्फ
इसलिए कि पता करें कि आज कुछ क्यों नहीं हो रहा दफ्तर में।
बाबू से पूछते रहते हैं, अच्छा, बताओ, आज मैं कैसा लग रहा हूँ? बाबू कहते हैं, साहब जी, इस बात पर तो
एक मीटिंग आयोजित कर ली जाए। सबकी सर्वसम्मति से पता भी लग जाएगा कि आप कैसे लग रहे हैं। अब मैं
अकेला कहूंगा, जनाब, तो छोटे मुँह बड़ी बात होगी।
बस, इसी बात पर एक मीटिंग आयोजित करनी पड़ती है।
अफ़सर की नई टाई की प्रशंसा के लिए भी एक मीटिंग आयोजित की जाती है। नीचे ओहदे वाले दफ्तर में किसी
कर्मचारी की खुशी बाँटने को पार्टी करते हैं, तो अफ़सर उस खुशी को काफूर करने के लिए मीटिंग करते हैं।
अफ़सर होना मतलब कुर्सी और उस पर टंगा उनका कोट। कोट के अंदर अफ़सर का होना ज़रूरी नहीं है। जैसे
भरत ने अयोध्या का राज्य चलाने के लिए राम जी की खड़ाऊँ ली थी, वैसे ही इनका कोट दफ्तर का राज्य
चलाता है। इससे बढ़िया रामराज्य आपको देखने को नहीं मिलेगा।
ये कहीं भी जाएँ, अपना कोट कुर्सी पर टांग देना नहीं भूलते। अगर बड़ा अफ़सर भी आ जाए, तो कोट देखकर
कोई भी कह सकता है कि अफ़सर तो हैं, लेकिन किसी ऑफ़िशियल काम से इधर-उधर गए होंगे। इसी बीच,
अफ़सर हो सकता है अपनी नई स्टेनो को पास के बंगले में टाइपिंग सिखाने में व्यस्त हो। काम तो दफ्तर का ही
हो रहा है ना!
–डॉ मुकेश असीमित