भगवान सूर्य धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर विश्राम करने जा चुके थे। पक्षियों की कलरव ध्वनि धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। गहन कालिमा बढ़ती जा रही थी परन्तु वसन्त की शीतल एवं मंद-मंद वायु आनंद में वृद्धि कर रही थी। इसी वातावरण में गुरू द्रोणाचार्य एक प्रस्तर शिला पर ध्यानमग्न बैठे थे।
आश्रम के एक छोर पर राजकुमार धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। एकाएक गुरूदेव के शब्दों ने आश्रम की शांति को भंग किया। उनका तेजस्वी स्वर गूंज उठा- “राजकुमारो ! जाओ, संध्यावंदन का समय हो गया है। अभ्यास बंद करके शीघ्र ही नित्य कर्म करो।”
इस आदेश के पाते ही राजकुमारों ने तीरों को तरकश में रख दिया और सभी अपनी-अपनी कुटिया की ओर चल दिए। गुरू द्रोणाचार्य भी उठ खड़े हुए थे। दो कदम बढ़ाते ही सामने अर्जुन नजर आये। द्रोणाचार्य ने उनसे पूछा- “तुम नहीं गए वत्स?”
“हां गुरूदेव! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं।” अर्जुन ने अपने शब्दों में विनय लाने का प्रयत्न करते हुए हाथ जोड़कर कहा।
“हां, हां, वत्स! निस्संकोच होकर पूछो।” कहते हुए गुरूदेव पुन: उसी शिलाखंड पर जाकर बैठ गये। अर्जुन भी उन्हीें के सामने जाकर बैठ गये और बोले, “गुरुदेव! प्रात:काल आपने समस्त राजकुमारों से कहा था कि आज धनुर्विद्या सीखने का अंतिम दिन है। जितनी शिक्षा आप हमें इस विषय पर दे सकते थे, वह हमें दो चुके हैं। कल, सब अपने-अपने घर जा सकते हैं लेकिन गुरूदेव, मैं इससे भी अधिक कुछ और सीखना चाहता हूं। बतलाइए कि मैं क्या करूँ?”
“वत्स ! तुम्हारी ज्ञान पिपासा की मैं मुक्तकण्ठ से सराहना करता हूं। इस संसार में इतना ज्ञान है, इतनी विद्याएं हैं कि उनका कोई पार नहीं पा सकता है, फिर भी धनुर्विधा में मैं जितना ज्ञान रखता था, तुम्हें दे चुका हूं। आगे इस विद्या को सीखना हो तो तुम्हें देवराज इन्द्र को अपना गुरू बनाना होगा किंतु वत्स यह कभी मत भूलना कि देवराज से शिक्षा ग्रहण करना, उनका शिष्यत्व स्वीकार करना सहज साध्य नहीं है। वहां शिष्यत्व ग्रहण करने से पूर्व तुम्हें अनेक कठिन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना होगा।”
गुरू के मुख से इन वचनों को सुनकर अर्जुन के मुख पर एक चमक आ गयी। कुछ क्षण के विचार करते रहे, फिर धीरे से बोले, “गुरुदेव! यदि आप आज्ञा दें तो मैं देवराज के पास जाकर शस्त्रविद्या सीखूं। आपका आशीर्वाद साथ है तो निश्चित ही मैं एक नहीं, सैंकड़ों परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर, योग्य शिष्य होने का गौरव प्राप्त कर लूंगा।”
“वत्स मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। जाओ, अपने राष्ट्र, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों का मान बढ़ाओ। जाओ, तुम सदा विजयश्री का वरण करोगे।” कहते-कहते गुरूदेव का कंठ भर आया। अपनी पर्णकुटी की ओर बढ़ गए जहां संध्यावंदन की सामग्री उनकी बाट जोह रही थी।
कुछ दिन बाद अर्जुन देवराज इन्द्र के पास पहुंचे। उस समय देवराज सिंहासन पर आसीन थे और उनके समीप अन्य देवगण, यक्ष, किन्नर और भूलोक के कई सम्मानित अतिथिगण भी उपस्थित थे। सभी ओर एक ही फुसफुसाहट हो रही थी- “अब समय आ पहुंचा है परीक्षा का, देखें कौन इस परीक्षा में विजयी होकर इन्द्र के शिष्यत्व का पात्र बनता है? सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने का अधिकारी कौन होता है?”
देवराज का आदेश पाते ही अप्सराओं ने नृत्य करना प्रारंभ कर दिया। वातावरण में एक अजीब-सा सम्मोहन छा गया। उपस्थित सभी व्यक्ति झूम रहे थे। देवराज ने अर्जुन की ओर दृष्टि घुमाई। अर्जुन आंखें नीची किए विचारमग्न बैठे थे। उन पर मानो वातावरण की मादकता का कोई प्रभाव नहीं था। बारी-बारी से अप्सराएं आकर अपना नृत्यकौशल दिखाकर चली जा रही थीं। तभी देवराज के आदेश पर उर्वशी को बुलाया गया।
स्वर्ग की अद्वितीय सुन्दरी उर्वशी मंच पर उपस्थित हो गई। अनेक ऋषि-मुनियों एवं त्यागी-तपस्वियों का तप भंग करने का उसे गौरव प्राप्त था। देवराज को प्रणाम करके वह नृत्य करने लगी। नृत्य के बीच-बीच में देवराज अर्जुन की ओर देखते जा रहे थे। अर्जुन पर उर्वशी के मायाजाल का तनिक भी प्रभाव नहीं था। एकाएक झन झन झन करती पायलों की झनकार के साथ ही वाद्ययंत्र भी रूक गये। समारोह समाप्त हो चुका था।
देवराज इन्द्र बड़ी देर तक विचार करते रहे कि आखिर इस परीक्षा में सौंदर्य की विजय हुई या संयम की? वे कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे। उन्होंने अर्जुन की अग्नि परीक्षा’ के लिए उर्वशी को बुलाया।
रात्रि में देवराज ने उर्वशी को अर्जुन के कक्ष में भेजा। उर्वशी ने अनेक प्रकार से अर्जुन को रिझाना चाहा। अर्जुन ने बड़े ही विनम्र भाव से उर्वशी को कहा- “देवी ! तुम मेरी श्रद्धा हो। मैंने तुम्हारी कला की प्रशंसा सुन रखी थी जिसे प्रत्यक्ष देखकर मैं धन्य हो गया। मैं कला का पुजारी हूं, रूप का नहीं। अभी तक मैं भ्रम में था कि मेरी माता ही संसार में सर्वाधिक सुन्दर है किंतु तुम उससे भी अधिक सुन्दर हो। काश! मैं तुम्हारी कोख से जन्म लेता तो और भी अधिक सुन्दर होता।”
सामने खड़ी उर्वशी अपने अतुल सौन्दर्य की प्रशंसा अर्जुन के मुख से सुन रही थी। अर्जुन के अन्तिम वाक्य “काश ! मैं तुम्हारी कोख से जन्म लेता तो और भी अधिक सुन्दर होता” उसके कानों में गूंज रहे थे। वह सोचने लगी। अगर ये ही भाव सभी पुरूषों के मन में पनप जायें तो मातृवत् परदोरेषु’ की उक्ति सार्थक हो सकती है।
– आनंद कु. अनंत