भारतीय संस्कृति में रक्षा बंधन का त्यौहार भाई और बहन के पवित्र स्नेह बंधन के प्रतीक के रूप में प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा भारत में वैदिक काल से ही चली आ रही है।
रक्षाबंधन त्यौहार के शुभारंभ पर बड़ा ही विवाद है किंतु कुछ कथाओं के आधार पर ऐसा सुना जाता है कि ‘रक्षा-सूत्र बांधने की प्रथा सबसे पहले कुंती ने चलायी। उसने अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को रक्षा-सूत्र बांधा। तभी से इस प्रथा का आरंभ हुआ।
भविष्य पुराणों के अनुसार एक बार देव और दानवों के बीच लगभग 12 वर्षो तक युद्ध चलता रहा। इन्द्र की विजय के लिए उनकी पत्नी इंद्राणी ने एक व्रत का आयोजन किया। इन्द्र जब युद्ध करते-करते थक गये, तब इंद्राणी उन्हें खिन्न देखकर बोली-हेे देव, दिवस का अवसान हो चुका है। अब शिविर में लौट चलें। कल मैं आपको अजेय बनाने वाले रक्षा-सूत्र को बांधूंगी।
दूसरे दिन जब पूर्णिमा का प्रभात था, समस्त अनुष्ठान सम्पन्न करने के पश्चात शची इंद्राणी ने इंद्र के दाहिने हाथ में शक्ति वर्द्धक रक्षा-सूत्र बांधा। ब्राह्मणों के सामगान के मध्य रक्षा सहित इंद्र जब रणभूमि में गये, तब उन्होंने अल्प काल में ही शत्रुओं को परास्त कर दिया। पुराण की एक कथा बतलाती है कि आज के दिन ही श्रावण नक्षत्र के प्रारंभ में भगवान विष्णु ने ध्यग्रीव अवतार के रूप में अवतरित हुए।
तभी से वैष्ण समुदाय से ध्यग्रीव जयंती के रूप मे मनाता है। चंूकि पंडित पुरोहितों की मंगल कामनाओं के प्रति लोगों में बहुत आस्था थी, इसलिए यह माना जा सकता है कि रक्षा-सूत्र बांधने की शुरूआत उन्हीं लोगों ने ही की होगी हालांकि इस त्यौहार का प्रारंभ मूलत: कहां से तथा कब हुआ, इसका निर्णय कठिन है।
मध्यकाल में गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने जब चित्तौड़ पर चढ़ाई की, तब संकट से उबारने हेतु चितौड़ की रानी कर्णावती ने बादशाह हूमायूं के पास राखी भेजी। हुमायूं रक्षा-बंधन में निहित भावना को समझता था। हालांकि वह अफगानों से लडऩे की तैयारी कर रहा था परंतु परिणाम की चिंता किये बगैर अपनी धर्म बहन की पुकार पर उसकी मातृभूमि की रक्षा के लिए चल पड़ा। दूरी अधिक होने के कारण हुमायूं समय पर नहीं पहुंच सका।
जब उसकी सेना पहुंची, तब तक बहादुर शाह ने चितौड़ जीत लिया था और कर्णावती अपनी दो हजार सहेलियों के साथ सती हो चुकी थी।
हुमायूं ने तत्काल बहादुर शाह से युद्ध छेड़ दिया और उसे मार भगाया तथा कर्णावती के पुत्र को चित्तौड़ की गद्दी दिलवा दी। यह मानवीय जज्बा था जिसने हुमायूं को बहन कर्णावती की रक्षा के लिए प्रेरित किया परंतु आम जनता के बीच भी बहनों द्वारा भाइयों को रक्षा बंधन का प्रचलन था, इसके उदाहरण नहीं मिलते।
सृष्टि का संचालन ही परस्पर एक दूसरे से रक्षा की भावना पर टिका हुआ है। प्रत्येक जीव अपने से श्रेष्ठ जीवों से यह आशा करता है कि वे अपने बल का प्रयोग हर स्थिति में उनकी रक्षा के लिए करते रहें। रक्षा के इसी अनमोल विश्वास पर संसार की सारी कार्य प्रणालियां निर्धारित होकर चल रही हैं। सामाजिक, आर्थिक, आत्मिक, पैशाचिक रक्षा आदि की कामना पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में अत्यधिक देखी जाती है। इसका मुख्य कारण सदियों से चली आ रही नारी की कोमल भावनाएं व अपने को पुरूष पर आश्रित रखने की धारणा को बनाये रखना ही होता है।
कोमलांगी कहलाने वाली नारी जन्म से मृत्यु तक पुरूष वर्ग यथा पति, पिता, भाई, पुत्र आदि पर ही अपने को आश्रित रखते हुए उनसे पग-पग-पल-पल रक्षा की कामना करती रहती है। परंपरा के अनुरूप मर्यादाओं के बंधन से परस्पर एक दूसरे को बांधने एवं अपने कर्तव्य निर्वाह, धार्मिक कृत्यों को करने-कराने का आश्वासन देने का अनोखा ढंग प्रस्तुत करता है ‘रक्षा-बंधन’ का यह त्योहार।
वैदिक काल में जहां व्यक्ति के प्रति शुभकामनाओं का प्रतीक ‘रक्षा-सूत्र’ बांधा जाता था, उसका रूप मध्य काल में बदल सा गया और बहन अपने भाइयों को अपनी रक्षार्थ ‘रक्षा-सूत्र’ अथवा ‘राखी’ के धागे बांधने लगी। समय के साथ-साथ यह पवित्र बंधन भी भाई बहन के अटूट प्रेम और स्नेह का बंधन बन गया तथा बहन अपने भाई की कलाई पर हर वर्ष श्रावणी पूर्णिमा को राखी के धागे बांधकर इस पवित्र त्योहार को मनाने लगी।
इस भाव से यह प्रतीत होता है कि बहन एक भाई से संपूर्ण रक्षा के प्रति आश्वस्त होना चाहती है। क्या बहन की मातृ स्नेहिल भावनाओं के कारण ही भाई उसकी रक्षा के प्रति संकल्पित रहता है? जिस शक्ति के द्वारा भाई-बहन को रक्षा करने का वचन देता है, उस शक्ति को प्रदान करने वाली नारी ही होती है। नारी को शक्ति स्वरूप माना गया है। भाई की कलाई पर रंग-बिरंगी राखी को बांधकर अपने स्नेह के साथ ही वह अनेक रंगों के समान अनेक शक्तियों को अपने भाई को सौंपती है।
टीका लगाकर उसके हर क्षेत्र में विजयी होने की कामना करती है। भाई की आरती करके वह उसे दीप की रोशनी के समान जगमगाते रहने की कामना करती है। मिठाई खिलाकर उसे अपने मुंह से हमेशा मीठी-बोली बोलते रहने की प्रेरणा को प्रदान करती है।
सामाजिक रूप से यह बंधन अब भाई-बहन के पवित्र स्नेह भरे रिश्ते का द्योतक बन चुका है। भारतीय संस्कृति में रक्षा बंधन हमारे पारिवारिक और सामाजिक संबंधों की पवित्रता को दर्शाने वाला सांस्कृतिक महत्त्व का ऐसा त्यौहार है जो हमारी संवेदनाओं से काफी जड़ तक जुड़ा हुआ है।
– संजय कुमार सुमन
– संजय कुमार सुमन