रक्षाबंधन का महत्त्व वैदिक काल से ही माना जाता है। कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधने की शुरूआत के संदर्भ में एक पौराणिक कथा पढऩे को मिलती है-
एक बार देवताओं और असुरों के बीच घमासान युद्ध हुआ जो लगातार 12 वर्षों तक चला। इस युद्ध में देवताओं के राजा इंद्र तक पराजित हो गए।
तब इंद्र देवताओं के गुरु बृहस्पति की शरण में गए और उनसे उपाय पूछा। तभी इंद्र की पत्नी शची ने निवेदन किया कि वे ही कोई उपाय करेंगी।
दूसरे दिन श्रावणी पूर्णिमा थी, इस दिन भोर होते ही शची ने ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन करवाकर रक्षा सूत्र लिया और इंद्र की दाहिनी कलाई में बांध युद्धभूमि में लडऩे के लिए भेज दिया। रक्षाबंधन के प्रभाव से असुर भाग खड़े हुए और इंद्र को विजय मिली। तभी से रक्षा के लिए सूत्र बांधने की परंपरा चल पड़ी।
चूंकि रक्षा की कामना किसी भी आत्मीय संबंधी के लिए की जा सकती है, इसलिए रक्षासूत्र बहनें भाई को, पत्नी पति को या ब्राह्मण सभी यजमानों को बांधते हैं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों द्वारा भी एक-दूसरे को रक्षा बंधन बांधा जाता था।
शास्त्रों के अनुसार श्रावणी पूर्णिमा के दिन स्नान ध्यान करके स्वच्छ वस्त्र पहनना चाहिए। घर को झाडू, पौंछा से साफ कर कलश की स्थापना करनी चाहिए।
चावल की छोटी-छोटी गांठें कपड़े या धागे में बांधकर केसर या हल्दी के रंग में रंगकर रख लेना चाहिए।
पुरोहित द्वारा विधि-विधान से कलश पूजन कराना चाहिए। इसके बाद चावल वाली गांठों को पुरोहित यजमान की दाहिनी कलाई पर बांधते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करें:-
‘येन बद्धो बली राजा, दान बेंद्रो महाबल:।’
तेन त्वा मभि बहनामि रक्षे माचल: माचल:।।
रक्षाबंधन का वैदिक स्वरूप यही है, इस विधान से बांधा गया रक्षा सूत्र अनिष्टों का निवारण करता है। इस पर्व पर ब्राह्मण वर्ग अपने जनेऊ बदलकर, सप्त ऋषियों का स्मरण कर शुभ संकल्प करते हैं।
– उमेश कुमार साहू