शास्त्रों का वचन है कि सत्य से बढ़कर कोई तप नहीं है और मिथ्या से बढ़कर कोई पाप नहीं, जिसके हृदय में सत्य प्रतिष्ठित है, उसके हृदय में परमात्मा का वास होता है, सत्यवादी व्यक्ति इस जन्म और इसके उपरान्त के जन्मों में उत्तम कीर्ति को प्राप्त होता है।
यह जो वाणी है वह सत्कार और तिरस्कार दोनों का कारण है। जो सत्य बोलता है वह प्रतिष्ठित और मिथ्यावादी सदैव निदिंत होता है सत्य बोलने से, सद्व्यवहार और सत्याचरण करने से आत्मा बलवान होती है, सत्य से ही धर्म की वृद्धि होती है।
सत्य की परिभाषा मात्र यह है कि आपकी आत्मा जो आदेश करे वही सत्य है। अपनी आत्मा के आदेश की अवहेलना कर परमात्मा के उत्तम साक्षी आत्मा का अपमान मत करो। सत्य वह है जो आपकी आत्मा, मन और वाणी में है और जो आत्मा के विपरीत है वह मिथ्या है।
सत्य की महिमा सभी धर्मों और सम्प्रदायों में समान रूप से स्वीकारी गई, जबकि असत्य को अधर्म की संज्ञा दी जाती है। सत्य को बोलते, सत्य का आचरण करते किसी प्रकार की शंका मन में नहीं उठती, जबकि मिथ्याचारी सदा सशंकित रहता है, किन्तु यह सावधानी अवश्य बरते कि सत्याचरण अर्थात सत्य बोलने और सत्य व्यवहार करते नम्रता और शालीनता का त्याग न किया जाये।