Friday, November 22, 2024

फास्ट फूड: बीमारियों का आधार

हमारी भारतीय संस्कृति सदैव ही संदेश देती रही है कि हमारे बहुमूल्य जीवन को स्वादेन्द्रिय का गुलाम नहीं बनने देना चाहिए, बल्कि आहार का चयन जीवन जीने के लिए करना चाहिए। ऐसा दृष्टिकोण ही हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है, जिससे हमारा शरीर और मन स्वस्थ एवं स्वच्छ हो सकते हैं। आहार से विचार प्रभावित होते हैं और विचार से प्रभावित होती है संस्कृति। पश्चिमी संस्कृति की आंधी ने हमारी जीवनशैली के साथ हमारे आहार और व्यंजनों को भी बदलकर रख दिया है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सदैव सात्विक भोजन को ही सर्व प्रकार से उचित बताया है। यह भी कहा है ‘जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन भारतीय परम्परागत आर्य ऋषियों की आहार व्यंजनों की परंपरा बड़ी ही अनोखी, पौष्टिक एवं स्वादपूर्ण थी। सात्विक एवं संतुलित आहार यहां की संस्कृति की मुख्य विशेषता थे। आहार के संबंध में महर्षि मनु का कथन है कि अधिक भोजन करना आरोग्य, आयु, सुख और पुण्य के लिए अहितकर है तथा लोक निन्दित भी है। तद्नुसार प्रात:काल और सायंकाल दो ही बार भोजन करना चाहिए, क्योंकि अत्यधिक भोजन शरीर के लिए हानिकारक है। हमारी संस्कृति के शिष्टाचार से भी उचित नहीं है।
हमारे ऋषियों द्वारा यह भी कहा गया है कि भोजन परोसने एवं बनाने वालों के संस्कार अच्छे होने चाहिए, क्योंकि उनके मनोगत भावों का भी भोजन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनके द्वारा सम्मान से व हृदयगत निष्ठा से दिया गया भोजन शारीरिक बल और कार्य करने की शक्ति प्रदान करता है। ग्यारहवीं सदी में राजा श्रेणिक के शाही भोजन करने के नियम साक्षात प्रमाण है। उनके भोजन में सबसे पहले ऐसे फल परोसे जाते थे, जिन्हें चखाया जा सके जैसे अनार, अंगूर आदि। इसके बाद उनके लिए गन्ने, संतरे, आम आदि चूसने वाले फल आते थे, लेकिन इन सभी का राजा सेवन अल्प मात्रा में समयानुसार ही करते थे, फिर अवलेह पदार्थ लेते थे जिससे जिह्वा का शुद्धिकरण भी हो सके। उसके पश्चात मोदक, दही, चावल परोसा जाता था। ठण्डे भोजन के बाद केसरयुक्त गाढ़ा दूध दिया जाता था। यह राजसी भोजन शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद था।
सर्वप्रथम भारत में पुर्तगालियों ने अपना प्रभाव छोड़ा और भारतीय आहार में परिवर्तन आना प्रारंभ हो गया। वे अपने साथ आलू, टमाटर, अमरूद, राजमा, काजू, चीकू और अनेक प्रकार की मिर्चियां लेकर आये। फूल गोभी यूरोप और लेटिन अमेरिका से आये। बंगाल और उड़ीसा की छेनी मुख्य मिठाई बनकर सामने आई, जो सभी बंगाली मिठाइयों का मुख्य आधार है। मध्य एशियाई लोग भारत में बाजरा, ज्वार, लोनिया और रोटियां बनाने की विभिन्न विधियां लेकर आये। मुगलों के खान-पान से भी भारतीय संस्कृति प्रभावित हुई। बाबर, हुमायूं और अकबर बादशाह तो भारतीय संस्कृति, धर्म, भोजन व साहित्य से प्रभावित होकर यहां की जमीं पर दिलोजान कुर्बान करते थे। बर्फ बनाने के तरीके विकसित किए गए। चीन का प्रभाव भी भोजन पर पड़ा। शहतूत और लीची चीन की देन है। मीठी चेरी, कपूर, सोयाबीन और चाय भी चीनियों की देन है। आज भारत में कॉफी, पिज्जा, बर्गर, फ्राइस नूडल्स और ठण्डा कोला से हमारा खानपान बदल गया है। फिर भी उत्तर भारत में सत्तू, दक्षिण भारत में इडली, गुजरात का ढोकला तथा पाव भाजी, उपमा, डोसा, हलवा आदि पारंपरिक भोजन लोकप्रिय पौष्टिक और स्वादिष्ट हैं। इस आधुनिक युग में भोजन  आवश्यकता न रहकर फैशन बन गया है। आज का फैशनेबल भोजन ही मानव का अंग बन गया है। हमें अपने परिवेश, अपनी संस्कृति के अनुरूप ही संतुलित भोजन लेना चाहिए। हमारे वेदों के अनुसार दाल-रोटी, चावल और मौैसमी सब्जियां तथा फल ही आदर्श भोजन है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर के लिए पौष्टिक तत्व से विद्यमान सात्विक भोजन में ही शरीर को निरोग, स्वस्थ बनाये रखने की क्षमता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वच्छ मन का विकास संभव है। फास्ट फूड कई बीमारियों का जनक है। अत: फास्ट फूड से परहेज करें। फास्ट फूड कई बीमारियों का आधार है, सदा अपनाएं शुद्ध व सात्विक आहार।
अनोखीलाल कोठारी-विनायक फीचर्स

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