प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि लोगों के मानवाधिकार के प्रति कुछ वर्षों से सक्रियता बढ़ी है। वर्तमान में जेल में निरूद्ध किए जा रहे किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज के हित के बीच संतुलन के समझ की आवश्यकता है। इसलिए दोनों के बीच इस तरह के संतुलन को बनाए रखने के लिए यह विचार करना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि जब तक कोई मजबूत आधार न हो, जैसे कि अभियुक्त के भागने की संभावना, उसके द्वारा सबूतों से छेड़छाड़ करने या मामले के गवाह या पीड़ित को धमकी देने की संभावनाएं तब तक किसी अभियुक्त को हिरासत में लेने से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसे दिए गए उसके मौलिक अधिकार यानी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
कोर्ट ने राजस्थान बनाम बालचंद उर्फ बलिए 1978 के आदेश का भी हवाला दिया। कहा कि मूल नियम को जमानत के रूप में रखा जा सकता है, जेल नहीं। इसे आधार बनाने के लिए संविधान के तहत एक अभियुक्त को अनुच्छेद 21 के तहत दिया गया अधिकार है। किसी व्यक्ति की हिरासत उसके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करती है और हिरासत का मुख्य उद्देश्य बिना किसी असुविधा के मुकदमे के लिए आरोपी की आसानी से उपलब्धता सुनिश्चित करना है। इस प्रकार आवश्यक होने पर ही हिरासत में लिया जाए।
अदालतों को भी किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी से संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों की व्याख्या करते समय हिरासत से बचना चाहिए, जब तक कि यह अपरिहार्य न लगे, आरोपी को जमानत दे देनी चाहिए। इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस गौतम चौधरी ने यह टिप्पणी जिला सहारनपुर के थाना गागलहेड़ी में अर्पित शर्मा के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी पर दाखिल जमानत अर्जी को स्वीकार करते हुए दी।
कोर्ट ने याची को निजी मुचलके और दो प्रतिभूतियों पर रिहा करने का आदेश दिया है। याची पर अपने ससुर अशोक कुमार शर्मा की गोली मारकर हत्या करने का आरोप है। उसकी ओर से कोर्ट में तर्क दिया गया कि वह देहरादून में रहता है। घटना सहारनपुर की है। तथ्य और परिस्थितियां मेल नहीं खा रही हैं। लिहाजा, उसे जमानत पर रिहा किया जाए।
इस पर कोर्ट ने जमानत अर्जी को स्वीकार करते हुए कहा कि सजा के सुधारवादी सिद्धांत का प्रयोग दंड के दो अन्य सिद्धांतों क्रमशः निवारक सिद्धांत और दंडात्मक सिद्धांत के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है। सुधारवादी सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य एक अभियुक्त को सुधारना और उसे जेल में आदतन अपराधियों से दूर रखना है। जिन्हें अपराधों की विविधता माना जाता है। यह सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि दंड एक निवारक के बजाय अधिक उपचारात्मक होना चाहिए। इस प्रकार के सिद्धांत के तहत किसी अपराध को एक बीमारी माना जाता है जिसे मारने से ठीक नहीं किया जा सकता है। बल्कि, इस तरह के रोग को सुधार की प्रक्रिया नाम की दवा की सहायता से ठीक किया जा सकता है।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में कहा है कि गिरफ्तारी से पहले और गिरफ्तारी के बाद पुलिस की शक्तियों पर कई नियंत्रण और संतुलन लगाए गए हैं। देश के सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे पुलिस अधिकारियों को निर्देश दें कि वे मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों की जांच किए बिना किसी आरोपी को गिरफ्तार न करें और गिरफ्तारी से पहले प्रारंभिक जांच करें।
कोर्ट ने कहा कि सार्वभौमिक सत्य यह भी है कि गिरफ्तारी अपने साथ बहुत अपमान भी लाती है। किसी की स्वतंत्रता को कम करती है और एक अभियुक्त के चरित्र पर हमेशा के लिए एक निशान छोड़ जाती है। एक जेल में बंद अभियुक्त अपनी नौकरी, प्रतिष्ठा खो देता है। इस तरह उसकी नजरबंदी का बोझ उसके परिवार के निर्दोष सदस्यों पर भी पड़ता है। स्थिति तब और भी खराब हो जाती है जब जेल में बंद व्यक्ति परिवार में एकमात्र कमाने वाला होता है और उसके कारावास से उसके निर्दोष आश्रितों को अनावश्यक पीड़ा होती है।