Tuesday, April 23, 2024

बदलते दौर में महिलाओं तक इंटरनेट और मोबाइल की पहुंच सुनिश्चित करना जरूरी

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आंकड़ों के मुताबिक विकासशील देशों में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की इंटरनेट तक पहुंच काफी कम है। तिरपन फीसद पुरुषों की तुलना में केवल इकतालीस फीसद महिलाएं इंटरनेट का उपयोग करती हैं। साथ ही महिलाओं के पास स्मार्टफोन होने की संभावना बीस फीसद कम है। महिला सशक्तिकरण एक ऐसी अनिवार्यता है, जिसकी अवहेलना किसी भी समाज और देश के विकास की गति को धीमा कर सकती है।

ऐसे में महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराना समाज और सरकारों की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। मगर इक्कीसवीं सदी के भारत में क्या महिलाओं को वे अवसर मिल रहे हैं, जिससे देश या विश्व कल्याण की दिशा में आगे बढ़ा जा सके? यह सबसे ज्वलंत सवाल है। आज हम डिजिटल युग में जी रहे हैं, मगर इस युग में सूचना और संचार माध्यमों तक महिलाओं की सीमित पहुंच चिंता का एक विषय है।

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सूचना, स्वास्थ्य, शिक्षा, ई-कामर्स और वित्तीय सेवाओं के लिए मोबाइल और इंटरनेट तक पहुंच आज की आवश्यकता है। मगर डिजिटल समावेशन को बढ़ावा देने वाली वैश्विक संस्था जीएसएमए द्वारा जारी ‘मोबाइल जेंडर गैप रिपोर्ट, 20022’ में यह तथ्य उजागर हुआ है कि देश एक बड़े डिजिटल विभाजन के दौर से गुजर रहा है।

रिपोर्ट कहती है कि मोबाइल और इंटरनेट तक पहुंच के बिना ऐसे लोगों के और पीछे छूट जाने का खतरा है, जिसमें खासकर आधी आबादी शामिल है। गौरतलब है कि डिजिटल पहुंच का यह अंतर महिला सशक्तिकरण में बाधक बन रहा है। महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और बेहतर स्वास्थ्य के अवसरों से दूर कर रहा है। यहां तक कि सामाजिक हिस्सेदारी में भी पिछड़ापन साफ नजर आता है। कई बार महिलाएं इंटरनेट का इस्तेमाल तो करना चाहती हैं, पर सामाजिक परिवेश महिलाओं को इसकी इजाजत नहीं देता।

एशियन डेवलपमेंट बैंक और सोशल नेटवर्किंग मंच ‘लिंक्डइन’ की 2022 की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार इस अंतर का यह अर्थ भी है कि महिलाएं श्रम बाजार में उन अवसरों से वंचित रह जाती हैं, जहां डिजिटल कुशलता की मांग होती है। ऐसी परिस्थिति में कार्यक्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व संकुचित हो जाता है। इसकी वजह से उन्हें न तो अच्छी नौकरी मिल पाती है और न ही उचित वेतन।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार देश में सिर्फ 54 फीसद महिलाओं के पास मोबाइल फोन है। वहीं 33 फीसद महिलाएं ही इंटरनेट का इस्तेमाल करती हैं। यह स्थिति और दयनीय तब हो जाती है, जब यह पता चलता है कि इनमें से केवल 22.5 प्रतिशत महिलाएं मोबाइल फोन से वित्तीय लेनदेन करती हैं। इन वजहों से महिलाएं समाज में काफी पीछे छूट जाती हैं।

यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतारेस ने लैंगिक डिजिटल भेदभाव को असमानता का नया चेहरा बताया है। उनका कहना है कि ‘महिलाएं भेदभाव के नए तरीके का सामना कर रही हैं और डिजिटल दुनिया पर पुरुषों का वर्चस्व आने वाले समय में मुश्किलें पैदा कर सकता है।’ ऐसे में दुनिया और खासकर अपना देश आधुनिक होने का चाहे जितना दिखावा कर ले, लेकिन धरातल पर महिलाओं की स्थिति हर मामले में आज भी पुरुषों से कमतर है।

बात जब आधी आबादी से जुड़े अधिकारों की होती है, तो समूचे विश्व में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार साफ देखा जा सकता है। महिलाओं से यही अपेक्षा की जाती है कि वे घर-परिवार की देखभाल करें, घर की चारदीवारी में सीमित रहें। महिलाओं को इंटरनेट और मोबाइल से दूर रखने के कारण भी पितृसत्तात्मक सोच से प्रेरित लगते हैं। भारत का डिजिटल लैंगिक अंतर मुख्य रूप से तीन कारकों का परिणाम है। इसमें पहला ग्रामीण-शहरी विभाजन है, दूसरा आय-आधारित विभाजन और तीसरा सामाजिक कारण है।

सब जानते हैं कि देश में मोबाइल फोन को शादी से पहले महिलाओं की प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखा जाता है। शहरों में इस दिशा में भले सोच में कुछ परिवर्तन देखने को मिल सकता है, लेकिन दूरदराज क्षेत्रों में शादी के बाद ही अक्सर मोबाइल फोन रखने की इजाजत महिलाओं को होती है। यहां तक कि महिलाओं की आनलाइन गतिविधियों पर अक्सर पुरुषों का नियंत्रण रहता है।

महिलाओं का इंटरनेट के प्रति झुकाव कम होने का आर्थिक कारण भी है। एक आंकड़े के अनुसार अगर कोई परिवार मोबाइल इंटरनेट का उपयोग करता है, तो उसे कम से कम अपनी मासिक आय का तीन प्रतिशत इस पर खर्च करना पड़ सकता है, जो किसी भी कम आय वाले परिवार के लिए बहुत अधिक है। ऐसे में महिलाएं आर्थिक दबाव के कारण भी संचार तकनीक के मामले में पीछे छूट जाती हैं।

एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि महिलाओं को सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने से रोका जाता है। महिलाएं इक्कीसवीं सदीं में भी डिजिटल मंचों का इस्तेमाल करने में पुरुषों की तुलना में कोसों दूर हैं। ऐसे में भले दुनिया भर में महिला पुरुष समानता की बात हो रही है और हमें संविधान की धारा 14 से 18 तक में समान अधिकारों की बात कही गई है, पर समाज में पुरुषवादी वर्चस्व किसी से छिपा नहीं है। तभी तो महिलाओं के पास फोन तो है, पर डेटा उपलब्धता के मामले में साफ पिछड़ापन देखा जा सकता है।

‘यूएन वुमन जेंडर स्रैपशाट 2022’ की रिपोर्ट की मानें तो लैंगिक डिजिटल विभाजन, डिजिटल दुनिया में महिलाओं को शामिल न करने से कम और मध्यम आय वाले देशों को जीडीपी में पिछले दस सालों में एक खरब डालर नुकसान का अनुमान है। रिपोर्ट में इस बात की भी चेतावनी दी गई है कि अगर इस समस्या को समय रहते दूर नहीं किया गया, तो यह नुकसान 2025 तक डेढ़ खरब डालर तक पहुंच सकता है।

देखा जाए तो वर्तमान दौर में रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मोबाइल फोन और इंटरनेट लोगों की बुनियादी जरूरतों में शामिल हो चुका है। बावजूद इसके, घर की महिलाएं इंटरनेट की पहुंच से काफी दूर हैं।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक डिजिटल तकनीक दुनिया भर में नब्बे फीसद नौकरियों का अभिन्न अंग है, मगर ये नौकरियां केवल डिजिटल रूप से सक्षम और महिलाओं की तुलना में पुरुषों के लिए अधिक उपलब्ध हैं। स्वाभाविक है कि अगर महिलाएं डिजिटल रूप से सक्षम नहीं होंगी, तो उनके लिए काम के अवसर भी कम होंगे।

आंकड़ों के मुताबिक विकासशील देशों में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की इंटरनेट तक पहुंच काफी कम है। तिरपन फीसद पुरुषों की तुलना में केवल इकतालीस फीसद महिलाएं इंटरनेट का उपयोग करती हैं। साथ ही महिलाओं के पास स्मार्टफोन होने की संभावना बीस प्रतिशत कम है और परिवार के पुरुष सदस्यों से फोन उधार लेने की संभावना अधिक है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लड़कियों की तुलना में लड़कों के पास स्मार्टफोन होने की संभावना अधिक होती है। ऐसे में वक्त का तकाजा यही है कि आधी आबादी तक डिजिटल तकनीक की पहुंच सुनिश्चित कराई जाए, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी भारत की है और इसमें लगभग आधी महिलाएं और लड़कियां हैं।

मध्यप्रदेश का ‘डिजिटल सखी’ अभियान इस दिशा में प्रेरणादायक कहानी बयान करता है, क्योंकि इस अभियान के माध्यम से युवतियां स्मार्टफोन के जरिए भेदभावपूर्ण सामाजिक मानदंडों को चुनौती दे रही हैं और समाज में व्याप्त डिजिटल लैंगिक भेदभाव को दूर करने की अलख जगा रही हैं। साथ ही प्रधानमंत्री ने ‘महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास’ के महत्त्व पर जोर दिया है, क्योंकि भारत जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए जी-20 का आधिकारिक जुड़ाव मंच से अपनी पांच प्राथमिकताओं में से एक के रूप में ‘लैंगिक डिजिटल विभाजन को पाटना’ है। ऐसे में महिलाओं तक इंटरनेट और मोबाइल की पहुंच सुनिश्चित करना जरूरी है। बशर्तें इन साधनों का अपने और समाज के विकास में योगदान होना चाहिए।
(लेखक-विजय गर्ग)

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