स्त्री सभी स्वरूप में भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार वन्दनीय, पूजनीय और अनुकरणीय मानी गई है। शास्त्रों में उल्लेखित सभी आधारों पर स्त्री के पूजन या सम्मान को सर्वोपरि रखा गया है, शक्ति स्वरूपा की आराधना को पर्वाधिराज के रूप में स्वीकार किया गया है। उसी स्त्री को दिए वचनों की अनुपालना के लिए राघवेंद्र को भी महल त्याग कर वन गमन करना ही पड़ा और असुरराज रावण के वध के कारक में भी स्त्री की भूमिका महनीय मानी जाती है। सृष्टि को राक्षसों के आतंक से मुक्त करने के लिए भी स्त्री को केन्द्र में रखकर रघुकुल नंदन ने रावण से युद्ध किया। चाहे सूर्पणखा हो, चाहे जनकनंदिनी सीता, चाहे मंदोदरी हो चाहे मंथरा, कैकेई हो या कौशल्या सभी स्त्रियों ने धरती को अनाचार के बढ़ते ताप से मुक्ति दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
राम के युग में स्त्रियों की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले इस बात से अनभिज्ञ हैं कि उस काल में जितनी स्वतंत्र स्त्रियाँ रही हैं, शायद वर्तमान में भी उतनी स्वच्छंद नहीं। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि उस काल में मातृशक्ति को भी समान स्वच्छंदता प्राप्त थी, इस बात से अंदाज़ा लगाइए कि रानी कैकेई को दिए गए राजा दशरथ के वचनों का ही परिणाम था कि राम वनवास गए। उस काल में यदि स्त्री की स्थिति ऐसी होती कि वह बाहर नहीं निकल सकती थी तो रानी कैकई देवासुर संग्राम में राजा दशरथ की सहायता कैसे करतीं? और फिर राजा दशरथ उन्हें दो वर प्रदान क्यों करते? रामायण काल में स्त्रियों के कंधों पर उनके उत्तरदायित्वों को निभाने का कार्य था जिसे वे भलीभाँति किया करती थीं, ऐसा वाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है।
यह प्रकरण है, जब महाराज मनु द्वारा स्थापित अयोध्या नगरी का वर्णन करते हुए वाल्मीकि लिखते हैं कि-
धू नाटक सन्घै: च संयुक्ताम् सर्वत: पुरीम्।
उद्यान आम्र वणोपेताम् महतीम् साल मेखलाम्।
यानी उस नगरी में ऐसी कई नाट्य मंडलियाँ थीं
-डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल