जिस अयोध्या नगरी में 22 जनवरी 2024 को श्री राम जी के मंदिर की 496 वर्षों के बाद पुनस्र्थापना हुई है। उस अयोध्या नगरी को साकेतपुरी, सुकौशल तथा विनीता भी कहते थे। उसी अयोध्या नगरी में करोडों वर्ष पूर्व महाराजा नाभिराय का शासन था। उनकी धर्मपत्नी महारानी मरुदेवी थी। महारानी मरुदेवी के गर्भ से चैत्र कृष्ण पक्ष नवमी को सुबह एक बालक ऋषभनाथ का जन्म हुआ। बालक ऋषभ के युवा होने पर उनका विवाह कच्छ और महाकच्छ की दो बहनों यशस्वती (नंदा) और सुनंदा के साथ कर दिया गया। रानी यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र और एक पुत्री ब्राह्मी हुई। तो रानी सुनंदा से एक पुत्र बाहुबली और एक पुत्री सुंदरी हुई। ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान दिया तो सुंदरी को अंक विद्या का ज्ञान दिया। ब्राह्मी लिपि आज भी प्राचीनतम है। सभी पुत्रों को शस्त्र और शास्त्रों का ज्ञान दिया और प्रजा पालन करना सिखाया।
यह वह समय था जब भोगभूमि का काल पूर्ण होकर कर्मभूमि का काल प्रारंभ हो गया था। भोगभूमि में दस कल्पवृक्ष होते थे जो मनुष्य की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे। मनुष्य को कोई काम नहीं करना पड़ता था। धीरे-धीरे काल के प्रभाव से यह कल्पवृक्ष लुप्त होते गए। और मनुष्य के सामने भूख प्यास, गर्मी सर्दी और बीमारियों की समस्याएं आने लगी। प्रजा अपने राजा नाभिराय के पास गई और उपाय पूछा तो राजा ने प्रजा को युवराज ऋषभदेव के पास भेज दिया।
भगवान ऋषभदेव या भगवान आदिनाथ ने संसारी रहते हुए प्रजाजनों को शस्त्र, लेखनी, विद्या, व्यापार, खेती एवं शिल्प इन छह कार्यों को करना सिखलाया। उन्होंने जनता को इन छह कार्य के द्वारा आजीविका पैदा करने के उपदेश दिए। इसीलिए वे युगकर्ता और सृष्टि के ब्रह्मा कहलाए। इस रचना के द्वारा ऋषभदेव ने प्रजा का पालन किया। इसलिए उन्हें प्रजापति भी कहा गया। उस समय ऋषभदेव ने प्रजा को असी, मसी, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प, छह उपाय बताएं। इन्हें षटकर्म कहा गया।
राजा नाभि राय ने कुछ समय पश्चात राज सिंहासन ऋषभदेव को सौंप दिया और खुद तपस्या करने के लिए वन में चले गए। राजा ऋषभदेव ने प्रजा को योग एवं क्षेम (नवीन वस्तु की प्राप्ति तथा प्राप्त वस्तु की रक्षा) के नियम बताएं। गन्ने के रस का उपयोग करना बताया। खेती के लिए बैल का प्रयोग करना सिखाया। इसीलिए ऋषभनाथ को वृषभनाथ भी कहा जाता है।
एक बार जब महाराज ऋषभदेव के जन्मदिन के दिन उत्सव मनाया जा रहा था। स्वर्ग की अप्सराएँ नृत्य कर रही थी। उनमें एक मुख्य अप्सरा नीलांजना नृत्य करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो गई। क्योंकि उसकी आयु पूर्ण हो गई थी। यह देखकर राजा ऋषभदेव को वैराग्य हो गया। और उन्होंने अपने सबसे बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर दीक्षा ले ली। अयोध्या से दूर सिद्धार्थ नामक वन में पवित्रशिला पर विराजकर छह माह का मोन लेकर उपवास और तपस्या की। जब छह माह का ध्यान योग समाप्त हुआ तो वे आहार के लिए निकल पड़े। चलते-चलते छह माह बाद हस्तिनापुर में पहुंचे। वहां के राजा सोमप्रभ और भाई श्रेयांश कुमार ने महाराज को प्रथम आहारदान गन्ने के रस का दिया। भगवान ने दोनों हाथों की अंजलि बनाकर खड़े रहकर उसमें इक्षारस का आहार लिया। और तभी से आज तक जैन मुनियों द्वारा खड़े होकर अपनी अंजलि में लेकर आहार करने की परंपरा चली आ रही है। वैशाख शुक्ल तृतीया के इसी दिन को अक्षय तृतीया कहते हैं। इस समय से ही आर्यखंड में दान की प्रथा प्रारंभ हुई।
ऋषभदेव ने एक हजार वर्षो तक कठोर तपस्या की। इसके बाद इन्हें फाल्गुन कृष्ण एकादशी को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ। इन्होंने अपनी इंद्रियों और इच्छाओं पर विजय पाई। जिससे यह जिन कहलाए। इन्होंने जो मार्ग बताया उसे जैन धर्म कहा जाने लगा। और तभी से जैन धर्म का प्रारंभ हुआ। इंद्र ने भगवान का उपदेश सुनने के लिए समोसरण की धर्म सभा की व्यवस्था की। भगवान के इस सभा मंडप में देव, मनुष्य, पशु, पक्षी सभी प्राणी आए। भगवान ने सभी को सच्चे सुख का मार्ग बताया। भरत के लघु भ्राता वृषभसेन ने समोसरण में वैराग्य होने पर मुनि दीक्षा धारण की और भगवान के प्रथम गणधर हुए। ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी देवी दीक्षित होकर प्रथम अर्जिका और अर्जिका संघ की गणिनी प्रमुख बनी। दूसरी पुत्री सुंदरी भी दीक्षा लेकर अर्जिका बन गयी। सम्राट भारत ने अपने परिवार सहित भगवान की वंदना की।
जब भरत ने उनसे उपदेश देने को कहा तो आपने बताया। जीव आत्मस्वरूप है। वह संसारी है और संसार को छोड़कर मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए उसे रत्नत्रय का मार्ग अपनाना होगा। रतनत्रय से आशय है सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र। सम्यक दर्शन का अर्थ देव, शास्त्र, गुरु का ज्ञान प्राप्त करना है और यह मोक्ष मार्ग की प्रथम सीढ़ी है। पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने वाला और अज्ञान को नाश करने वाला सम्यक ज्ञान कहलाता है। समता भाव धारण कर निज रूप में विचरण ऐसे लक्षण को सम्यक चारित्र कहा जाता है। सम्यक दर्शन के बिना सम्यक ज्ञान और चरित्र को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सम्यक दर्शन के बिना सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन तीनों को मिलाकर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
जब भगवान ऋषभदेव या भगवान आदिनाथ के मोक्ष गमन में चौदह दिन शेष रह गए तब पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन आप कैलाश पर्वत पर जाकर योग निरोध में लीन हो गए। भगवान की दिव्य ध्वनि नजदीक आ गई। भगवान के मोक्ष का समय नजदीक जान महाराजा भरत अपने अन्य भाइयों और प्रजाजनों के साथ कैलाश पर्वत पर भगवान की शरण में आ पहुंचे और 14 दिन की महामह नाम की पूजा प्रारंभ की। माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान ऋषभदेव पूर्वमुख से अनेक मुनियों सहित विराजमान हुए और तीसरे शुक्ल ध्यान में तीनों योगों का निरोध करते हुए अयोग्य हो गए। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव ने कैलाशगिरी से अशरीरी सिद्ध पद प्राप्त किया। आत्म सुख में तल्लीन रूप में भगवान वहां आज भी विराजमान है ऐसी मान्यता है। भगवान का मोक्ष जानकर इंद्रगणों ने और चक्रवर्ती भरत आदि ने भगवान के मोक्ष निर्वाण कल्याणक का उत्सव मनाया।
जनसाधारण में यह भ्रांति है कि जैन धर्म के संस्थापक भगवान महावीर थे। जबकि जैन धर्म में कुल मिलाकर 24 तीर्थंकर हुए हैं। जिनमे प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। जिन्होंने जैन धर्म का प्रारंभ किया। और भगवान महावीर अंतिम 24वें तीर्थंकर थे। इतिहास की कुछ पुस्तकों में यहां तक कि सरकारी पाठ्यक्रम की किताबों में भी भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक बताया गया है। जिसका सरकार को सुधार करना चाहिए। भगवान ऋषभदेव के मोक्ष/निर्वाण कल्याणक के अवसर पर माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सारे देश में जैन समाज के लोग मंदिरों में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा का नवन करते हैं। पूजा पाठ के साथ दीप जलाकर भगवान का मोक्ष निर्वाण कल्याणक धूमधाम से मनाते हैं।
-अतिवीर जैन पराग-विनायक फीचर्स