Wednesday, May 8, 2024

महावीर जयंती: भगवान महावीर का अर्थशास्त्र

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मनुष्य जाति को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। भविष्यदर्शी, वर्तमानदर्शी और विगतदर्शी। अतीत को देखना उसके बारे में सोचना कोई बड़ी बात नहीं है अपनी गतिविधि या कार्यशैली को मोड़ देने के लिए अतीत की समीक्षा उपयोगी हो सकती है किंतु अतीत के बारे में अधिक चिंतन करने से कोई उपलब्धि मिल सकती है ऐसा प्रतीत नहीं होता।
पैरों के सामने कोई भी देख सकता है किसी में चिंतन की क्षमता हो या नहीं, वर्तमान में घटित घटनाओं पर दृष्टिपात सहज ही हो जाता है। मनुष्य की बात ही क्या, एक पशु भी वर्तमानजीवी हो सकता है। खानपान, सुरक्षा, बचाव आदि उसके सारे कार्य तात्कालिक अपेक्षाओं और परिस्थितियों के आधार पर होते हैं।
चिंतनशील वह कहलाता है, जो भविष्य को देखता है। सौ पचास वर्ष की बात सोचे बिना कोई भी व्यक्ति किसी बड़ी योजना को प्रारंभ नहीं कर सकता। दीर्घ पश्ंयत मा. हस्वं परं पश्यम मापरम्। दीर्घकाल को देखो अल्पकाल का क्या देखना, उत्कृष्ट को देखो साधारण का क्या देखना, उपनिषदों की यह वाणी मनुष्य को आगे की बात सोचने की प्ररेणा देती है।
इस संसार में जितने अर्थशास्त्री हुए हैं, जिन जिन लोगों ने नई अर्थनीतियों का प्रवर्तन किया है संभवत: उन्होंने दूरगामी चिंतन को क्रियान्वित करने की चेष्टा की है। समाज सुधार या मनुष्य को सुखी बनाने की अभिप्रेरणा से किये गये प्रयत्नों का स्वागत भी होता है। किंतु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जब तक मनुष्य के भीतर कषाय और नोकषाय की विद्यमानता रहेगी, वह सुखी नहीं बन पाएगा।
कषाय और नोकषाय जैन दर्शन के परिभाषिक शब्द हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ इस चतुष्पदी का सूचक है कषाय शब्द। संसार में परिभ्रमणशील प्रत्येक प्राणी इस चतुष्पदी से जकड़ा हुआ है। मात्रा का अंतर आवश्यक है। किसी व्यक्ति को बहुत तीव्र क्रोध आता है और उसका प्रभाव दीर्घकाल तक रहता है। कोई व्यक्ति बहुत कम क्रोध करता है। यही बात मानें माया और लोभ के बारे में है।
नोकषाय का अर्थ कषाय का अभाव नहीं। कषाय को उत्तेजित करने वाली कृतियां है। नोकषाय के नौ प्रकार हैं हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। ये वृत्तियां कषाय के साथ पैदा होती हैं और उसके साथ ही संवेदित होती हैं। कषाय और नोकषाय का संबंध मोहनीय कर्म के साथ है। जब किसी मोहनीय कर्म का क्षय नहीं होता, मनुष्य एकान्तिक सुख का अनुभव नहीं कर सकता।
हर धर्म के सिद्धांत ऊंचे होते हैं, किंतु आदमी उनका ईमानदारी से पालन नहीं करता। जब तक धर्म आत्मसात् नहीं हो पाता, आदमी अच्छा नहीं बन पाता। सब कुछ ठीक होने पर भी आदमी ठीक नहीं है तो कोई भी काम ठीक नहीं होता। इसलिए सबसे पहले आदमी को ठीक करने की जरूरत है, उसकी वृत्तियों को बदलने की जरूरत है, कषाय और नोकषाय को कम करने की जरूरत है।
दरिद्र कौन? कषाय चतुष्टयी के आखिरी छोर पर प्रतिष्ठित है लोभ। लोभ की अभिप्रेरणा व्यक्ति को अर्थार्जन की दिशा में अग्रसर करती है। इस दिशा का जितना विस्तार होता है, लोभ की मात्रा उतनी ही बढ़ जाती है। जितनी सम्पन्नता, उतनी तृष्णा। यह एक शाश्वत सच्चाई है। इस सच्चाई को उलटने वाले कुछ विशिष्ट व्यक्तियों का चिंतन दूसरा है। उन्होंने कहा है-
को वा दरिद्रो हि विशालतृष्ण:।
श्रीमाश्य को ग्रस्य समस्तोष:।।
जिस व्यक्ति की तृष्णा जितनी अधिक होती है, वह उतना ही बड़ा दरिद्र होता है। वह व्यक्ति सबसे अधिक समृद्ध है, जो पूरी तरह से संतुष्ट रहता है।
दरिद्र और समृद्ध की यह परिभाषा स्पष्ट करती है कि दरिद्रता और समृद्धि का संबंध अर्थ से नहीं व्यक्ति के विचारों से है, वृत्तियों से है। इसलिए वृत्तियों और विचारों के परिष्कार की अपेक्षा है। चित्र बनाने के लिए साफ सुथरा कैनवास चाहिए। कैनवास पर धब्बे होंगे तो चित्र सुंदर नहीं बनेगा। परिष्कार के लिए भी साफ-सुथरी दृष्टि चाहिए इसी का नाम सम्यक दर्शन है। इसके लिए कषाय के दबाव का हल्का करना आवश्यक है।
अर्थ जीवन यापन का साधन है, यह बात सही है। यदि उसे समान रूप में ही स्वीकृत किया जाता तो अर्थार्जन की सीमा हो जाती है। किंतु जब वह साधन के सिंहासन से उठकर साध्य के सिंहासन पर जा बैठता है समस्या तभी पैदा होती है। जहां अर्थ को विलासिता और प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाया जाता है, वहां भी उलझने बढ़ती हैं। अर्थ के साथ सुख शांति की कल्पना भी जुड़ी हुई हैं। पर ऐसी कल्पनाएं की रीढ़ उस समय टूट जाती हैं, जब एक अकिंचन व्यक्ति के सुख के साथ चक्रवर्ती सम्राट का सुख तोला जाता है।
तुला के एक पलड़े में अकिंचन का सुख और दूसरे पलड़े में चक्रवर्ती सम्राट का सुख। तुला का दंड ऊपर उठाया जाता है तो चक्रवती के सुख वाला पलड़ा बहुत ऊपर उठ जाता है और अकिंचन के सुख वाला पलड़ा धरती को छूता रहता है। इस अंतर की अभिव्यक्ति निम्नलिखित पद्य से होती है-
तणसंथारणिसण्णो स्वि,
मुणिवरों भ_रागमयमोहो।
जं पाव इमुत्ति-सृहं,
कत्तो चक्यकवपट्टी वि।।
राग, मद और मोह को जीतने वाला अकिंचन मुनि तिनकों के बिछौने पर बैठकर जिस अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करते हैं एक चक्रवर्ती सम्राट उसकी कल्पना ही नहीं कर सकता।
महावीर का दर्शन कहता है कि सुख न पदार्थ में है और न उसके त्याग या भोग में है। सुख है व्यक्ति की अपनी वृत्तियों मेें। मनुष्य अपने आप में रहना सीख ले तो वह संसार का सबसे बड़ा सुख पा सकता है। संसार के अधिक लोग इस बात में विश्वास नहीं करेंगे। फिर भी यह तो निश्चित है कि भाग दौड़ प्रतिस्पर्धाओं और खींचतान में सुख नहीं, केवल सुखाभास ही मिल सकता है।
अर्थशास्त्र के साथ महावीर की चर्चा क्यों?: वर्तमान युग विज्ञापनों का युग है। विज्ञापन संस्कृति की चकाचौंध से मनुष्य की आंखें चुंधिया रही हैं। साधारण पदार्थ भी विज्ञापन का सहारा पाकर उसकी आंखों पर चढ़ जाता है। विज्ञापन समाचार-पत्रों में होते हैं पोस्टरों में होते हैं, पदार्थों के पैकटों, पर होते हैं और टेलीविजन पर बहुत ही आकर्षक ढंग से दिखाए जाते हें। लोग उन्हें रुचि से देखते हैं, उनके प्रति आकृष्ट होते हैं और जैसे-तैसे उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
मनुष्य की मनोवृत्ति सुविधावादी होती है। भोगवादी होती है। सुविधा और भोग के लिए अर्थ की अंधी दौड़ मेें उचित-अनुचित का विवेक ही समाप्त हो जाता है। यह वर्तमान दुनिया का अर्थशास्त्र है इसी के आधार पर दुनियादारी चलती है इसके साथ महावीर के अर्थशास्त्र का उपयोग नहीं होगा तो अर्थशास्त्रीय समस्याओं का समाधान नहीं होगा। महावीर के अर्थशास्त्र की बुनियाद है साधनशुद्धि। इस बुनियाद पर नियंत्रित इच्छाओं का महल खड़ा होगा, तभी आदमी सुख चैन से जी सकेगा। कुछ लोग पूछ सकते हैं कि अर्थशास्त्र के साथ महावीर को जोडऩे का क्या उद्देश्य है? इस प्रसंग में एक दोहा उद्धत किया जा रहा है-
दही जु मांटे द्यालियो करें जु जाझाजोझ।
ऊन्हा ठंडा क्यूं करै? माखण कैरे काज।।
आदमी दूध उबालता है, ठंडा करता है, दही जमाता है उसे मिट्टी के बड़े पात्र में डालता है और मथनी लेकर उसका मंथन करता है, उसे झागमय बना देता है। क्यों? मक्खन पाना है। इसी उद्देश्य से सारी प्रक्रिया की जाती है। अर्थशास्त्र के संबंध में इस पूरी चर्चा परिचर्चा का एक ही उद्देश्य है कि अशांत और बैचेन मनुष्य को कोई ऐसा रास्ता उपलब्ध हो, जिस पर चलकर वह शांति का अनुभव कर सके।
गणाधिपति तुलसी-विनायक फीचर्स

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