शरीर, मन और समय रूपी तीन संपदाएं मनुष्य मात्र को एक समान मिली हैं। शारीरिक और मस्तिष्कीय संरचना को गढऩे में परमात्मा ने अपनी ओर से थोड़ा-भी भेदभाव नहीं रखा है। जन्म लेने वाले शिशुओं की शारीरिक और मानसिक बनावट का परीक्षण करने पर परस्पर एक-दूसरे के बीच कोई विशेष अंतर नहीं दिखता, बल्कि एकरूपता ही दृष्टिगोचर होती है। समय रूपी तीसरी संपदा भी सबको एक समान प्राप्त है। दिन और रात को मिलाकर 24 घंटे की अवधि सभी को उपलब्ध है। एक सेकंड भी किसी को कम अथवा अधिक नहीं मिला है। जन्मजात उपलब्ध होने वाली बाह्य परिस्थितियों में तो अंतर हो भी सकता है पर इन तीन विभूतियों को देने में ईश्वर ने मनुष्य, मनुष्य के बीच किसी प्रकार भेदभाव नहीं रखा है।
एक जैसी क्षमताएं जन्म से ही प्राप्त करते हुए भी कुछ व्यक्ति जिस भी क्षेत्र में उतरते हैं, सफलताएं अर्जित करते जाते हैं और कुछ जीवनपर्यंत दीन-हीन, गई-गुजरी परिस्थितियों में बने रहते हैं और किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाते। ऐसे लोग परावलंबी बने, जीवन को घसीटते और किसी तरह अवशेष दिन पूरे करते हैं। एक की सफलता और दूसरे की असफलता को देखकर मन में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि सफल और असफल होने के मूलभूत कारण कौन-कौन से हैं? किन विशेषताओं के रहने से कुछ व्यक्ति जिस भी क्षेत्र में उतरते हैं, अपने लक्ष्य में सफल हो जाते हैं, जबकि दूसरों के द्वारा उनकी उपेक्षा कर देने से असफलता ही हाथ लगती है?
किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए प्राय: तीन सूत्रों का अवलंबन लेना होता है। (1) लक्ष्य का निर्धारण, (2) अभिरुचि का होना, (3) क्षमताओं का सदुपयोग। ये तीन सिद्धांत ऐसे हैं जिन्हें अपनाकर किसी भी क्षेत्र में सफल होना संभव है।
समाज के अधिकांश व्यक्तियों का जीवनक्रम लक्ष्यविहीन होता है। सफल व्यक्तियों को देखकर उनका मन भी वह सौभाग्य प्राप्त करने के लिए ललचाता रहता है। कभी एक दिशा में बढऩे की सोचते हैं और कभी दूसरी। विद्वान को देखकर विद्वान, कलाकार को देखकर कलाकार बनने की ललक उठती है। कभी धनवान होने और कभी बलवान बनने की बात सोचते हैं। अपना कोई एक सुनिश्चित लक्ष्य नहीं निर्धारित कर पाते। बंदर की भांति उनका मन भटकता रहता है। फलत: एक दिशा में क्षमताओं का नियोजन नहीं हो पाता। बिखराव के कारण कोई प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता, बल्कि असफलता ही हाथ लगती है।
जिस तरह देशाटन के लिए नक्शा और जहाज चालक को दिशासूचक की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन में लक्ष्य का निर्धारण अति आवश्यक है। क्या बनना और क्या करना है, यह बोध निरंतर बने रहने से उसी दिशा में प्रयास चलते हैं। एक कहावत है कि ‘जो नाविक अपनी यात्रा के अंतिम बंदरगाह को नहीं जानता, उसके अनुकूल हवा कभी नहीं बहती।Ó अर्थात समुद्री थपेड़ों के साथ वह निरुद्देश्य भटकता रहता है। लक्ष्यविहीन व्यक्ति की भी यही दुर्दशा होती है। अस्तु, सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि अपना एक निश्चित लक्ष्य निर्धारित किया जाए।
सफलता का दूसरा सूत्र है-अभिरुचि का होना। जो लक्ष्य चुना गया है उसके प्रति उत्साह और उमंग जगाना, मनोयोग लगाना। लक्ष्य के प्रति उत्साह, उमंग न हो मनोयोग न जुट सके तो सफलता सदा संदिग्ध बनी रहेगी। आधे-अधूरे मन से बेगार टालने जैसे काम करने पर किसी भी महत्वपूर्ण उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती। मनोविज्ञान का एक सिद्धांत है कि ‘उत्साह और उमंग शक्तियों का स्रोत हैं। इनके अभाव में मानसिक शक्तियां परिपूर्ण होते हुए भी किसी काम में प्रयुक्त नहीं हो पातीं।
उत्साह किसी भी कार्य का प्राण है। शरीर में प्राणवायु की भांति वह लक्ष्य की ओर गतिशील करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उत्साह रूपी अग्नि ही कार्य-संचालन के लिए भाप तैयार करती है। वह युवावस्था का लक्षण है। अतएव अभिरुचि का अर्थ है, जो भी लक्ष्य निर्धारण किया गया है, उसमें पूर्ण मनोयोग जुड़ा होगा, क्योंकि काम के आरंभ में जितनी अभिरुचि दिखाई पड़ती है, उतनी बाद में नहीं रह पाती। फलस्वरूप जितनी तत्परता और तन्मयता लक्ष्य के प्रति सतत बनी रहनी चाहिए, उतनी न होने से आधी-अधूरी सफलता ही मिल पाती है। सफलता अर्जित करने का तीसरा सूत्र है अपनी क्षमताओं का सुनियोजन-सदुपयोग। समय, उपलब्ध संपदाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। शरीर, मन और मस्तिष्क की क्षमता का तथा समय रूपी संपदा का सही उपयोग असामान्य उपलब्धियों का कारण बनता है। निर्धारित लक्ष्य की दिशा में समय के एक-एक क्षण के सदुपयोग से चमत्कारी परिणाम निकलते हैं। शरीर से श्रम करना ही पर्याप्त नहीं है वरन् मस्तिष्क की क्षमता का उसमें पूर्ण योगदान होना भी आवश्यक है। मस्तिष्क में असीम संभावनाएं भरी पड़ी हैं। विचारों की अस्त-व्यस्तता और एक दिशा में सुनियोजन न बन पाने से ही उसकी अधिकांश शक्ति व्यर्थ चली जाती है। शक्तियों के बिखराव से कोई विशिष्ट उपलब्धि हासिल नहीं हो पाती। सूर्य की किरणें बिखरी होने से उनकी शक्ति का पूरा लाभ नहीं हो पाता। आतिशी शीशे पर केंद्रीय भूत होकर वे प्रचंड अग्नि का रूप ले लेती हैं। मस्तिष्कीय सामर्थ्य के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है।
सफल और असफल व्यक्तियों की आरंभिक क्षमता, योग्यता और अन्य बाह्यï परिस्थितियों की तुलना करने पर कोई विशेष अंतर नहीं दिखता, फिर भी दोनों की स्थिति में धरती और आसमान का अंतर आ जाता है। इसका एकमात्र कारण है, एक ने अपनी क्षमताओं को एक सुनिश्चित लक्ष्य की ओर सुनियोजित किया, जबकि दूसरे के जीवन में लक्ष्यविहीनता और अस्त-व्यस्तता बनी रही।
भौतिक अथवा आध्यात्मिक किसी भी क्षेत्र में आगे बढऩे वालों के साथ उपर्युक्त तीन विशेषताएं अनिवार्य रूप से जुड़ी रही हैं। किसी भी प्रकार की सफलता की आकांक्षा रखने वालों को उपर्युक्त सूत्रों का ही आश्रय लेना होगा।
(द्वारका प्रसाद चैतन्य-विभूति फीचर्स)