भारतीय नववर्ष की शुरुआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि, शुक्ल पक्षे समग्रे तु तु सदा सूर्योदये सति। ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के अनुसार चैत्र मास के प्रथम सूर्योदय पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। इस तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान् के आदि अवतार मत्स्य रूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है। इसलिए यही वो दिन है जब से भारत वर्ष की कालगणना की जाती है। हेमाद्रि के ब्रह्म पुराण के अनुसार, ब्रह्मा जी ने पृथ्वी की रचना चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन की थी।
प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (पड़वा) को मनाया जाना वाला नव संवत्सर पर्व यूं तो हिंदू कैलेंडर के मुताबिक नववर्ष कहलाता है, लेकिन ये दिवस विशेष भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। यही वजह है कि ये दिवस महज एक नया साल का प्रारंभिक दिवस नहीं बल्कि भारतवर्ष की सदियों और युगों की कई ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक घटनाओं का साक्षी भी है। वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों ओर पुष्पों की सुगंध से भरी होती है। फसल पकने का प्रारंभ यानी किसान की मेहनत का फल मिलने का समय भी यही होता है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं। यानी किसी भी कार्य प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त होता है। युगों में प्रथम सत्य युग का प्रारम्भ भी इस तिथि को हुआ था।
कहा जाता है कि नवसंवत्सर कई मायनों में विशेष है, क्योंकि इससे कई ऐतिहासिक संदर्भ जुड़े हुए हैं। जैसे कि भगवान राम का राज्याभिषेक दिवस, शक्ति की आराधना वाले नवरात्र का आरंभ, शौर्य पर्व वाले विक्रम संवत का प्रारंभ तथा द्वापर युग में प्रारंभ हुए युधिष्ठर संवत् का समापन सतयुग में इसी दिन किया गया था, ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना का प्रारंभ, आर्य समाज की स्थापना का दिवस सहित भगवान झूलेलाल तथा महर्षि गौतम जी का जन्म भी इस विशेष नववर्ष के दिन ही हुआ है। वहीं गुरु अमरदास को भी गुरु गद्दी इसी दिन प्राप्त हुई तो स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी। संघ संस्थापक डॉ. केश्वराव बलिराम हेडगेवार का जन्म विक्रमी संवत पर हुआ था। यही वजह है कि इस दिवस का जनमानस में विशेष महत्व है,क्योंकि ये त्योहार किसी एक वर्ग, संप्रदाय या धर्म का नहीं बल्कि हर भारतीय का है।
यह तिथि ऐतिहासिक महत्त्व की भी है। इतिहास के अनुसार शकों ने (शक जाति) उज्जैनी पर आक्रमण करके अपना साम्राज्य विदिशा और मथुरा तक फैला लिया था। उनके अत्याचारों से पीडि़त होकर जनता भयभीत हो उठी थी। तब तत्कालीन मालवा के प्रमुख नायक विक्रमादित्य ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया था। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने के उपलक्ष्य में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था। इसी दिन से चारों ओर प्राकृतिक वातावरण में नूतनता और मादकता आ जाती है, इसलिए इसे नया संवत कहना उचित है। नवसंवत को हम देश की समृद्धि तथा प्रगति का सूचक भी मानते हैं।
भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत है। वर्ष का पर्यायवाची है संवत। विद्वान कहते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ सांस्कृतिक कारणों से भी नवसंवत का महत्व है। आज भले ही ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार एक जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष ज्यादा चर्चित हो, लेकिन इससे कहीं पहले से अस्तित्व में आर्या हिंदू विक्रमी संवत आज भी धार्मिक अनुष्ठानों और मांगलिक कार्यों में तिथि व काल की गणना का आधार बना हुआ है।
विक्रमी संवत का संबंध सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत और ब्रह्मांड के ग्रहों एवं नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना को दर्शाती है। ब्रह्मांड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नवसंवत यानी संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें एवं 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमश: 45 व 15 में दिया गया है। सौर मंडल के ग्रहों एवं नक्षत्रों के चाल, उनकी निरंतर बदलती स्थिति पर भी हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं।
इस समय शीतकाल की शीतलता एवं ग्रीष्म काल की आतपता का मध्यबिन्दु होता है। वसंत के आगमन के साथ ही पतझड़ की कटु स्मृति को भुलाकर नूतन किसलय एवं पुष्पों से युक्त पादप वृंद इस समय प्रकृति का अद्भुत श्रृंगार करते हुए दिखलाई देते हैं। पशु-पक्षी, कीट-पतंग, स्थावर- जंगम सभी प्राणी नई आशा के साथ उत्साहपूर्वक अपने-अपने कार्यों में लगे दिखाई देते है। ऐसे उत्साहयुक्त समय में वार्षिक काल गणना का श्रीगणेश करते हुए नूतनवर्ष का स्वागत सहज ही प्रतीत होता है।
विक्रम संवत आज तक भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार बना हुआ है। सबसे बड़ी विशेषता इस कैलेंडर की यह है कि यह वैज्ञानिक रूप से कालगणना के आधार पर बना हुआ है। यही नहीं यूनानियों ने नकल कर भारत के इस हिंदू कैलेंडर को दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैलाया। भले ही आज दुनिया भर में अंग्रेजी कैलेंडर का प्रचलन बहुत अधिक हो गया हो लेकिन भारतीय कैलेंडर की महत्ता कम नहीं हुई। आज भी हम अपने व्रत-त्योहार, महापुरुषों की जयंती-पुण्यतिथि, विवाह व अन्य सभी शुभ कार्यों को करने के मुहूर्त आदि भारतीय कैलेंडर के अनुसार ही देखते हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही वासंती नवरात्र भी प्रारंभ होते हैं। सबसे खास बात इसी दिन ही सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। ताज्जुब होता है जिस भारतीय कैलेंडर ने दुनिया भर के कैलेंडर को वैज्ञानिक राह दिखाई आज हम उसे ही भूलने लग गए हैं।
भारतीय हिंदू नववर्ष के दिन हम शुभकामनाएं देने से हिचकिचाते हैं शायद इसलिए की कहीं हम पर रूढ़ीवादी का टैग न लग जाए। जबकि अपनी संस्कृति संस्कारों का अनुसरण करना रूढि़वादिता नहीं। यह तो वह बहुमूल्य धरोहर है जिससे एक तरफ पूरा विश्व सीख रहा है तो दूसरी ओर हम इस धरोहर को खोते जा रहे हैं। दुनिया को राह दिखाने वाली संस्कृति आज खुद राह से भटकने को मजबूर है। भले ही आज सोशल मीडिया पर हिंदू नववर्ष को मनाने के लिए हम सब संदेशों को प्रचारित प्रसारित कर रहे हों लेकिन हकीकत में उस दिन को भूल जाते हैं।
नवसंवत हमारी संस्कृति से जुड़ा है। हम कितनी भी बुलंदियां छू लें, लेकिन अपनी संस्कृति को नहीं भूलना चाहिए। कुछ लोग नवसंवत के महत्व को नहीं समझते। अपने धर्म व संस्कृति के उत्सवों को मनाने का सभी में लगाव होना चाहिए। हमारे महापुरुषों व वीर योद्धाओं ने धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए बहुत बलिदान दिया है क्या वह बलिदान इसलिए ही दिया था की एक दिन हम अपनी संस्कृति व धर्म को ही भूल जाएं। वास्तव में, विक्रम संवत न सिर्फ एक मान्यता है, बल्कि खगोलीय गतिविधियों को भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रमाणित करता है। विदेशी परंपराओं से परे अपनी भारतीय संस्कृति की इस अनमोल धरोहर व सटीक गणितीय गणना वाले विक्रम संवत का नई पीढ़ी में भी सही जानकारी के साथ प्रचार-प्रसार होना चाहिए। हर्षोल्लास के साथ हिंदू नव वर्ष मनाया जाना चाहिए। अपनी संस्कृति से जुड़कर ही हम देश व समाज के लिए कुछ सकते हैं।
-डॉ. आशीष वशिष्ठ