Thursday, November 21, 2024

पंजाब में पुन: विष फलाने के प्रयत्नों को पंजाबी समाज सफल नहीं होने देगा

भारत राष्ट्र का एक भू-भाग ऐसा है जो वैदिक काल से ही आध्यात्मिक, संसारिक और धार्मिक गतिविधियों का केंद्र रहा जो सप्तसिंधु नाम से प्रचलित था। वैदिक भूमि सप्तसिंधु सात नदियों की भूमि के नाम से वर्णित है, जो इस प्रकार है- सरस्वती, सिन्धु, सतलुज, ब्यास, रावी, जेहलम और चिनाव। इस सप्त सिंधु क्षेत्र में गांधार (अफगानिस्तान) से लेकर कुरुक्षेत्र तक उत्तर-पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप शामिल हैं, जो वर्तमान मानचित्र में पंजाब (भारत- पाकिस्तान), हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल एवं चंडीगढ़ का भाग शामिल है।
सिंधु क्षेत्र के मार्ग द्वारा भारत ने अपना संपूर्ण ज्ञान समस्त विश्व में फैलाया किस प्रकार अच्छाई और बुराई एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं, ठीक उसी प्रकार ज्ञानवर्धन करने वाले सप्तसिंधु मार्ग द्वारा ही भारत राष्ट्र की भूमि पर सर्वप्रथम विदेशी म्लेच्छों ने पैर रखा। सांस्कृतिक बहुलतावादी राष्ट्र होने के कारण भारत ने विदेशी मजहबी संस्कृति को स्वीकार किया परंतु मजहबी मानसिकता की एकेश्वरवादी सिद्धांत की तलवार भारत राष्ट्र खास तौर पर सप्त सिंधु पंजाब की संस्कृति पर भारी रही, जिस कारण विरोध करने के बावजूद भी पंजाब क्षेत्र पर राष्ट्र विरोधी शक्तियों ने शासन स्थापित किया परन्तु वह पंजाब की राष्ट्रवादी विचारों को परिवर्तित न कर सके। समय में पंजाब अपने वैदिक ज्ञान से संपूर्ण विश्व को ज्ञानवान करता रहा और मध्यकालीन समय में समाज को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की गुरुबाणी पथ प्रदर्शित करती रहीं।
सप्तसिंधु क्षेत्र (पंजाब) प्राचीन समय से ही अपने ज्ञान के प्रकाश से भारत का नाम समस्त विश्व में रोशन कर भारत को विश्व गुरु की उपाधि से सुशोभित करता रहा है। , वसुधैव कुटुंबकम की विचारधारा में मलेच्छों की कुसंगति के मिश्रण से पंजाब का ज्ञान रूपी वृक्ष जर्जर होने लगा, ठीक उसी प्रकार जैसे दीमक वृक्ष को खोखला कर देती है। पुरुषार्थ हीन और ज्ञानहीन समाज में आध्यात्मिकता केवल एक शब्द मात्र ही थी, वास्तविकता में प्रभाव अंधविश्वास और आडंबरों का था। ऐसे अज्ञान रूपी दशा में समाज का उद्धार करने के लिए ज्ञान रूपी प्रकाश का सूरज बन श्री गुरु नानक देव जी अवतरित हुए, जिन्होंने अपनी शिक्षाओं में समरसता और समन्वय का संदेश दिया।
मुगलों द्वारा मूर्तियों को खंडित करने और मंदिरों को ध्वस्त करने पर श्रीगुरुनानक देवजी ब्रह्म आराधना का संदेश दिया। सामाजिक दृष्टिकोण में हो रहे बाबर के अत्याचारों का विरोध भी श्री गुरु नानक देव जी ने किया, जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब में पृष्ठ 360 पर आसा राग में निखित है:-
खुरासान खसमाना किया हिंदुस्तान डराया।।
आपै दोस न देई करता जमु करि मुगल चढ़ाया।।
एती मार पई करलाणे त्है की दरदु न आइया।।
गुरु नानक देव जी इन पंक्तियों में उस कालखंड में मुगलों द्वारा पंजाब ही नहीं अपितु पूरे हिंदुस्तान पर ढ़ाई गई यातनाओं का वर्णन किया। इस्लामी शासकों के बीभत्स अत्याचारों से स्थानीय हिंदू अपनी पूजा पद्धति विस्मृत कर चुके थे। गुरु नानक देव जी ने अध्यात्म की स्थापना हेतु चारों दिशाओं में भ्रमण किया जिसके परिणामस्वरूप समाज के एक बड़े भाग ने उनकी शिक्षाओं पर अमल कर अपना जीवन व्यतीत करना शुरू किया इस प्रकार गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं पर चलने से सिख पंथ की नींव रखी गई।
मुगलों से भारतीय ज्ञान और आध्यात्मिक पद्धति को बचाने के लिए दूसरे गुरु श्री गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरुमुखी लिपि का प्रयोग किया गया, इसका मुख्य कारण भारत के लिखित ग्रंथों को विकृत होने से बचाना था क्योंकि गत समाज में गुरुमुखी लिपि का कोई जानकार नहीं था जिसकारण मुगल धार्मिक ग्रंथों को खंडित ना कर सके। इसी लिपि के द्वारा समस्त भारत का वैदिक अलौकिक ज्ञान संरक्षित कर समाज के विभिन्न खंडों को एक माला की तरह बंधुत्व के धागे में पिरोया गया, जिससे समाज में एकता और समन्वय स्थापित कर समभाव धार्मिक पद्धति के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त किया जा सके।
श्री गुरु नानक देव जी के ज्ञान के परिणामस्वरूप पांचवें गुरु, श्री गुरु अर्जन देव जी समाज की रक्षा हेतु वीरगति प्राप्त करने वाले प्रथम गुरु बने, जिससे पंजाब के मध्यकालीन इतिहास में शहादत शब्द को स्थान मिला, जिसके परिणामस्वरूप पंजाब का समाज पुरुषार्थ मान धर्म कार्य में तत्पर हुआ। वैष्णव संप्रदाय से आध्यात्मिकता का ज्ञान लेकर तथा शाक्तय संप्रदाय से शौर्य और शास्त्रों का ज्ञान लेकर छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद जी ने मीरी- पीरी नामक तलवारों को धारण किया, जो समाज तथा धर्म रक्षा हेतु थी। इसी शौर्यवान प्रथा को उनके पुत्र नवमें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी तथा दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा निरंतर अभ्यास कर जीवित रखा गया।
जिस प्रकार कश्मीरी हिंदू 1989-91 में इस्लामी आतंकवाद का शिकार हुए ठीक उसी प्रकार कश्मीरी लोगों पर संकट श्री गुरु तेग बहादुर जी के कालखंड में भी था। जब श्री गुरु तेग बहादुर जी ने मुगल शासक औरंगजेब से इसे तुरंत बंद करने की अपील करी, तब इस बात से तिलमिलाए औरंगजेब ने गुरु साहिब को इस्लाम या मौत किसी एक को चुनने के लिए कहा। परन्तु इस्लामी तलवार के सामने निडर होकर श्री गुरु तेग बहादुर जी ने धर्म के मार्ग पर चलना स्वीकार किया जिससे अपमानित हो कर जालिम औरंगजेब ने उन्हें और उनके दो शिष्यों भाई मतिदास और भाई दयाल दास को अमानवीय यातना देकर मौत के घाट उतार दिया। गुरु साहिब ने अपने अनुयायियों की मृत्यु को देख कर अधिक दृढ़ता के साथ धर्म का पालन किया तथा अपना शीश कटवाना स्वीकार किया किंतु धर्म ना छोड़ा।
दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस घटना का वर्णन ‘बचित्तर नाटक में कुछ इस प्रकार किया है –
तिलक जंजू राखा प्रभ ताका, सीसु दीआ पर सी न उचरी।
धर्म हेत साका जिनिंग कीआ, सीसी दीआ पर सिरर ना दीआ।।
अर्थात समाज में तिलक और जनेयु की रक्षा हेतु श्री गुरु तेग बहादुर जी ने अपने शीश का परित्याग कर दिया किंतु अपने धर्म का त्याग नहीं किया। इस घटना के परिणामस्वरूप दसवीं पातशाही श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने परिवार सहित मुगलों का सामना किया, जिसके लिए उन्होंने 1699 में वैशाखी वाले दिन श्री आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की। जिसका मुख्य उद्देश्य इस्लामी कट्टरवाद से समाज की रक्षा करना था। खालसा सृजन से पहले उन्होंने शक्ति यज्ञ का अनुष्ठान भी किया।
गुरु साहिब जी की इच्छा थी कि – सकल जगत मो खालसा पंथ गाजै, जगै धर्म हिंदुक तुर्क दुंद भाजै।
अर्थात सारे जगत में खालसा पंथ की गूंज हो, हिंदू धर्म का उत्थान हो तथा तुर्कों द्वारा पैदा की गई विपत्तियां समाप्त हो। खालसा सृजन दौरान हमारे पहले पांच प्यारे भी भारत देश के विभिन्न स्थानों से संबंधित थे, जैसे ही उत्तर प्रदेश से भाई दयाराम, हस्तिनापुर दिल्ली से भाई धर्मदास, पुरी से भाई हिम्मत राय, द्वारका से भाई मोहम्मद चंद और कर्नाटक से भाईसाहब चंद। अपने जीवनकाल में अपनी संतानों को खो चूके गुरु गोबिंद सिंह जी 1708 में वीरगति को प्राप्त हुए। अपने अंतिम समय में स्त्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को संपूर्ण स्वरूप दिया तथा समाज को समर्पित कर गुरु का स्थान प्रदान किया।
18 वीं शताब्दी के समाप्त होने तक पंजाब में इस्लामी शासन का अंत हो चुका था तथा कई सिख राजाओं ने शासन स्थापित किया, जिसमें महाराजा रणजीत सिंह सर्वाधिक शक्तिशाली थे। तत्कालीन समस्त सिख पंथ के लोग भारत की प्राचीन सांस्कृतिक जड़ों से संबंधित थे इसका तर्क महाराजा रणजीत सिंह के अधिकारिक सैन्य नियमावली के पहले पृष्ट से स्पष्ट हो जाता था, जिसमें हिंदुओं के पवित्र ? में त्रिदेव (विष्णु,शिवजी, ब्रह्मा) और देवी लक्ष्मी जी की आकृतियां अंकित थी।
शेर-ए-पंजाब नाम से विख्यात महाराजा रणजीत सिंह का जीवन भी सनातन संस्कृति से प्रेरित था। सिख गुरुओं की शिक्षा और परम्पराओं का अनुसरण करते हुए उन्होंने अपने शासन में ब्राह्मणों को संरक्षण प्रदान किया और गौवध के लिए मृत्युदंड भी निर्धारित किया। कई सैन्य अभियानों के अंतर्गत उन्होंने कश्मीर में पंडितों को क्रूर इस्लामी शासन से स्वतंत्र कराया तथा पराजित अफगानियों से लूटे सोमनाथ मंदिर के कपाट वापस करने को कहा और इस्लामी शासकों से देश की धरोहर व नायाब कोहिनूर हीरे को भारत वापस लेकर आए। 27 जून 1839 को उनका देहांत हो गया, तब उनकी वसीयत में इसी कोहिनूर को पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ के चरणों में अर्पित करने को कहा परंतु ब्रिटिश कुटिलता के कारण आज भी वह हीरा ब्रिटेन की महारानी के ताज में विद्यमान है।
भारत में लंबे समय तक अपना शासन स्थापित करने के लिए अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई जिसका शिकार महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब भी हुआ। तत्कालीन सिख साम्राज्य के एकमात्र वारिस युवराज दिलीप सिंह अल्प आयु में राजगद्दी पर बिठा दिए गए। अंग्रेजों ने बालक दिलीप सिंह को उनकी माँ महारानी जिन्दां कौर से अलग कर दिया और उन्हें लंदन भेज कर उनका मतांतरण कर सर की उपाधि देख कर पंजाब और भारत की संस्कृति से दूर कर दिया।
समानता का भाव और हिंदू सिख संबंध के चिन्ह दस गुरुओं की शिक्षाओं और परम्पराओं में मिलते हैं, उससे प्रेरित बंधुत्व को ब्रितानी तत्कालीन भारत में अपने कुटिल उद्देश्य की पूर्ति हेतु तोडऩा चाहा। अंग्रेज समझ चूके थे कि सिख और हिंदू समाज में मुस्लिम समाज की तरह समाज से विश्वासघात करने वाला सैयद अहमद खान जैसा व्यक्ति नहीं मिलेगा, इसीलिए अंग्रेजों ने अपने कट्टरवादी विचारों के प्रसार हेतु मैक्स आर्थर मैकॉलिफ और मैक्समूलर जैसे व्यक्तियों का चयन किया। योजनाबद्ध तरीके से मैकॉलिफको 1862 में प्रशासनिक सेवा में प्रवेश करवाकर 1864 में पंजाब भेजा गया। सिखों का विश्वास पात्र बनाने हेतु उस ने सिख पंथ में मतांतरण भी कर लिया।
इस संबंध में प्रसिद्ध लेखक कुशवंत सिंह अपनी पुस्तक सिख धर्म और गुरु खंड एक में लिखते हैं, कहा जाता है कि मैक्स आर्थर मैकॉलिफ की नियुक्ति के पीछे ब्रिटिश शासन का कुटिल उद्देश्य था। लार्ड डलहौजी ने सिख साम्राज्य को हड़पने के बाद पाया कि, उस समय सिख- हिंदू तीव्रता से एक हो रहे थे। डलहौजी और ब्रिटिश प्रशासकों को लगा कि स्थिति उनके अनुकूल तभी होगी जब खालसा सिक्खों को उनकी विशेष और अलग पहचान के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
उसी कालखंड में मैक्स ऑर्थर मैकॉलिफ ने भाई काहन सिंह नाभा की सहायता से पवित्र ग्रंथ श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का अंग्रेजी में अनुवाद किया। बाद में उनकी छह खंडों में ‘द सिख्स, देयर रिलिजन गुरू सेकरेड राइटिंग सहित अन्य पुस्तकें भी लिखीं। 1897-98 से भाई काहन सिंह नाभा की ‘हम हिंदू नहीं प्रकाशित हुई, जो वर्तमान खालिस्तान का आधार भी है। अंग्रेजों का षड्यंत्र बहुत ही रचनात्मक ढंग से सिख समाज को हिंदू समाज से अलग करने का काम करता रहा।
अंग्रेजों की सहायता से सैयद अहमद खान के ‘दो राष्ट्र सिद्धांत के कारण मुस्लिम समाज का बड़ा वर्ग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से अलग हो चुका था। यही नहीं, इसी कालखंड में सिख समाज के प्रमुखों में अलगाव की भावना जागृत हो चुकी थी जिसके परिणामस्वरूप तत्कालीन उत्तर भारत के कई गुरुद्वारों से हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां भी बाहर फेंकी जा रही थी। तत्कालीन समय में तुष्टीकरण की राजनीति के कारण पंजाबी समाज से पहले मुस्लिम समाज भिन्न हो चुका था परन्तु मैकॉलिफ की विषयुक्त पुस्तकों और कुछ प्रमुख बुद्धिजीवियों द्वारा पंजाबी समाज को गुरु की शिक्षाओं के विरुद्ध सिख और हिंदू में विभाजित किया गया। जिसका परिणाम स्वतंत्रता के पश्चात पंजाब में बहुत बड़ा अलगाववादी आंदोलन के रूप में देखा गया।
यहां कुल सारांश यह है कि सप्तसिंधु पंजाब जो संपूर्ण भारत राष्ट्र के लिए आध्यात्मिक और शस्त्र विद्या का केंद्र था, जिसके शौर्य के कारण पंजाब को भारत की खड्ग भुजा भी कहा गया। वैदिक भूमि होने के कारण ज्ञान का मूल आधार वेदों और वेदान्त को माना गया। परंतु मध्यकालीन में ज्ञान का आधार समस्त वेदों और प्राणों के मिश्रण श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी बने जिन के ज्ञान रूपी प्रकाश से सारा पंजाबी समाज बंधुत्व की माला में पिरोया गया। कालांतर तक विभिन्न विदेशी शक्तियों ने भारत पर आक्रमण कर संस्कृति और सभ्यता को दूषित किया जिसके परिणामस्वरूप बंधुत्व में विषैला बीजारोपण हुआ जिसका प्रभाव पंजाब ने लगभग तीन दशकों तक झेला जो पंजाब के स्वर्णिम इतिहास में काले अक्षरों से अंकित है। वर्तमान समय में भी कई राजनीतिक दलों और अलगाववादी संगठनों की तरफ से पंजाब में पुन: विष फलाने के प्रयत्नों को समस्त पंजाबी समाज द्वारा एकत्रित होकर नाकाम किया जाना चाहिए ताकि एक सुरक्षित एवं विकसित समाज और राष्ट्र की नींव रखी जा सके।
-रजत भाटिया

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