Thursday, May 9, 2024

धर्म: मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं

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मृत्यु का नाम सुनते ही साधारण व्यक्ति के होश उड़ जाते हैं और एक क्षण के लिए वह जैसे मर-सा जाता है। मृत्यु से डरने का मानव का स्वभाव-सा बन गया है। साधारण-सा रोग, मामूली-सी घटना, मृत्यु का विचार आदि शंकाजनक संयोग आते ही कमजोर आदमी कांप उठता है और सोचने लगता है कि कहीं वह बीमारी हमारे प्राण न ले ले। कहीं वह शत्रु हमें मार डालने की नहीं सोच रहा हो। संभव है वहां जाने से हम किसी घातक घटना के शिकार बन जाएं। मृत्यु के भय से मनुष्य खाने-पीने और प्रतिकूलताओं से जमकर मोर्चा लेने से डरता रहता है।

यही नहीं, किसी की मृत्यु देखकर, किसी दुर्घटना का समाचार सुनकर भी व्यक्ति अपनी मृत्यु की शंका से आक्रांत हो जाता है। यहां तक कभी-कभी स्वयं भी अकेले में संसार की नश्वरता का विचार आते अथवा अपनी आयु के बीत गए वर्षों पर विचार करने से भी वह मृत्यु भय से उद्धिग्न हो उठता है। अंधेरे अथवा अपरिचित स्थानों में निर्भयतापूर्वक पदार्पण करने से भी उसे मृत्यु की शंका निरुत्साहित कर देती है। नि:संदेह मृत्यु का भय बड़ा ही व्यापक तथा चिरस्थायी होता है।

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यदि इस मृत्यु-भय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए, तो यह बड़ा ही क्षुद्र तथा उपहासास्पद ही प्रतीत होगा। पहले तो जो अनिवार्य है, अवश्यंभावी है, उसके विषय में डरना क्या? जब मृत्यु अटल है और एक दिन सभी को मरना ही है, तब उसके विषय में शंका का क्या प्रयोजन हो सकता है? यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने लायक नहीं है। हमारे पूर्वजों की एक लंबी परंपरा मृत्यु के मुख में चली जा चुकी है और आगे भी आने वाली प्रजा उनका अनुसरण करती ही जाएगी, तब बीच में हमें क्या अधिकार रह जाता है कि उस निश्चित नियति के प्रति भयाकुल अथवा शंकाकुल होते रहें। मृत्यु को यदि जीवन का अंतिम एवं अपरिहार्य अतिथि मानकर उसकी ओर से निश्चित हो जाएं, तो न जाने अन्य कितने भयों से हम अनायास ही मुक्ति पा जाएंगे। मृत्यु का भय ही वस्तुत: सारे भयों की जड़ अथवा बीज है।

मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है, जो इस मानव जीवन का महत्व नहीं समझते और इस लंबी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। कामों को अधूरा छोड़कर ढेर लगा लेने वाले जब देखते हैं कि उनकी जीवन-अवधि की परिसमाप्ति निकट आ गई है और उनके तमाम काम अधूरे पड़े हैं, तब वे मृत्यु के भय से कांप उठते हैं। सोचते हैं, मेरी जिंदगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरंतर बढ़ा चला आ रहा  अभियान रुक जाता, तो मैं अपने काम पूरे कर लेता, किंतु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप चोटी पकड़ कर घसीट ले जाती है।

इसके विपरीत जिसने अपने कर्तव्य तथा उत्तरदायित्व को रुचि एवं तत्परता से पूरा किया है, जीवन के करणीय कार्यों की उपेक्षा नहीं की है, आयु के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग किया है, उसे मृत्यु से डरने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। वह मृत्यु आने पर हंसता-मुस्कराता हुआ उसका स्वागत करता है और मृत्यु उसे संतुष्ट माता की तरह प्यार से गोद में उठाकर ले जाती और उस दिव्य स्थान में पहुंचा देती है, जहां उसके कर्त्तव्य पुरस्कार उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं।  अकर्तव्य एवं अकर्मण्यता दोनों ही ऐसे दोष हैं, जो मृत्यु भय को न केवल जाग्रत ही रखते हैं, वरन् बढ़ाकर भयानक से भयानकतर बना देते हैं। मृत्यु का भय कायर की वृत्ति है, कर्मवीर तो उसे मित्र तथा माता मानकर किसी समय भी उसका स्वागत करने को तैयार रहा करते हैं।

यदि मृत्यु से भयभीत होने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं सन्नद्ध बना देता है, सुरक्षा के प्रबंधों तथा व्यवस्था के लिए सक्रिय रहता है, उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोडऩे से उतना नहीं डरता, जितना ‘मरने के बाद न जाने क्या गति होगी इस विचार से भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे भयानक तथा अंधेरे लोकों में भटकना होगा। कीट-पतंगों की निकृष्ट योनियों में जाना होगा। बैल, कुत्ता, भैंसा, ऊंट, घोड़ा, गधा आदि बनकर वह सब दंड भोगना होगा, वह सब यातना सहनी होगी, जिसे हम आज अपनी आंखों से उन्हें भोगते देख रहे हैं।

यदि यह आशंका भय को जन्म देती है, तब क्यों न ऐसे कर्मों, ऐसी गतिविधियों में संलग्न हो जाया जाए, जिससे कि अंधेरे लोकों तथा अधम योनियों की आशंका ही दूर हो जाए। अधिक से अधिक जितना प्रकाश, जितना आलोक और जितना उजाला हम इकट्ठा कर सकें, क्यों न कर लें, जिससे कि परलोक में अपनी आत्मा के प्रकाश से अपना पथ प्रकाशित कर लें। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि उजाले की प्राप्ति उज्ज्वल एवं आदर्श कर्मों से ही होती है। पुण्य, परमार्थ, परोपकार, जनसेवा और पावन जीवन-पद्धति से आत्मा में अक्षय प्रकाश के भंडार भर जाते हैं।

इससे पूर्व कि मृत्यु आए और अपमानपूर्वक चोटी पकड़कर घसीट ले जाए, क्यों न सत्पथ पर अग्रसर होकर प्रकाश का प्रबंध कर लिया जाए। क्यों न उस पुण्य प्रधान संबल को एकत्र कर लिया जाए, जो हमारा, हमारी आत्मा का अनंत एवं अगत पथ में सहायक बने।

इस विषय में साधनों की शिकायत करना उचित नहीं। कोई भी सत्कर्म फिर चाहे वह छोटा है अथवा बड़ा यदि सच्ची परमार्थ भावना से किया गया, समान फल ही उत्पन्न करता है, क्योंकि कर्म में भावना ही प्रधान होती, उसका आकार-प्रकार नहीं। आइए, हम अपनी वासनाओं, तृष्णाओं तथा एषणाओं को त्याग कर स्वार्थ तथा संकीर्णता को तिलांजलि देकर क्रूरता, कपट और असत्य को बहिष्कृत कर द्वेष, दुर्भाव तथा दयनीयता को छोड़कर दया-दाक्षिण्य, उदारता, प्रेम, सौहार्द, दान तथा धर्म-भावना के अक्षय दीप जला लें, तब देखें मृत्यु का भय, परलोक का अंधकार हमारी तटस्थ बुद्धि को किस प्रकार विचलित कर सकता है। अपने अधूरे कामों को पूरा करने में जुट जाइए, अपने कर्तव्यों से मुंह न चुराइए, पुण्य परोपकार का कोई अवसर न जाने दीजिए और अपनी आत्मा पर विश्वास कर जीवन को प्रखर गति से आगे बढ़ाइए, मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण न रह जाएगा। हो सकता है एक लंबे प्रमाद के कारण आपके इतने काम अधूरे रह गए हैं जिन्हें अब अवशेष अवधि में पूरा करना संभव नहीं, तब भी चिंता की कोई बात नहीं, आपको उन्हें पूरा करने का फिर अवसर मिलेगा। भावना के बदलते ही पश्चाताप के साथ क्रियाशील हो उठने पर मनुष्य के पूर्व अपराध क्षमा कर दिए जाते हैं और उसे एक बार फिर अपना सुधार करने का, सुपथ निर्माण करने के लिए समय व अवसर दिया जाता है। यह तो साधारण सांसारिक व्यवहार में भी होता रहता है, फिर उसे परमपिता की सुंदर, करुण तथा दयापूर्ण विधान धारा में तो यह और भी सरल है।

इस साधारण पक्ष के साथ-साथ मृत्यु के संबंध में एक अधिक गहरा और सत्य पक्ष भी है। जो इसका दार्शनिक पक्ष कहा जाता है। मनुष्य का जीवन दो तत्वों से मिलकर बना है। शरीर और उसमें निवास करने वाली चेतना। जीवन का चेतन-तत्व ही तो वास्तव में हम हैं। यह मृत्तिका पिंड तो उस चेतन की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। उसका वाहन भर ही है। रथ में बैठकर चलने वाला मनुष्य यदि स्वयं को रथ मान ले, तो उसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य को स्वयं अपने को ही नष्ट मान लेना चाहिए, किंतु ऐसा होता कहां है? रथ अथवा वाहन के नष्ट हो जाने पर भी उसका रथी अथवा सवार यथावत बना ही रहता है। हां, जब उसको अपने वाहन के प्रति अनुचित ममता हो जाती है, उसे ही अपना अस्तित्व एवं सर्वस्व मान बैठता है, तो अवश्य ही उसके नष्ट होने अथवा नष्टï होने की कल्पना से दु:ख होता है, किंतु यह तो अज्ञान है। इसको किसी भी प्रकार से मान्यता नहीं दी जा सकती।

अपने को शरीर समझने वाले अज्ञान व्यक्ति ही तो मृत्यु अर्थात देहावसान से भयभीत रहा करते हैं। जो बुद्धिमान अपने को चेतन स्वरूप समझते हैं, जो कि वास्तव में उनका स्वरूप है भी, वह मृत्यु के भय से कदापि क्लांत नहीं होते, क्योंकि उनकी मृत्यु होती ही नहीं है। चेतन अथवा आत्मा अक्षय तथा अजर-अमर है, उसकी मृत्यु होना तो दूर, उसे कोई विकार तक नहीं घेरता और यही अमर आत्मा ही तो मनुष्य का वास्तविक अस्तित्व, उसका सच्चा स्वरूप है। देहाभिमान ही मृत्यु का मूल कारण है। इसे छोड़कर अपने सत्य स्वरूप आत्मा में विश्वास करते है तो आपको मृत्यु का भय होने का कोई कारण ही न रह जाएगा। शरीर तो आत्मा की सहायता, उसका अलंकरण तथा प्रकाश करने के लिए बदलते रहते हैं। हर मौत के बाद आत्मा को नया तथा सुंदर शरीर मिलता रहता है, तब यह तो हर्ष तथा प्रसन्नता की ही बात हुई, इसमें खेद अथवा दु:ख करने का क्या प्रयोजन हो सकता है?

अब इतने पर भी यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से भयभीत होता है, तो यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह जो कुछ है वह अपने को न मानकर वह मानता है, जो वास्तव में है नहीं। इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि दिन भर काम करने के बाद शरीर थक जाता है, तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य मीठी नींद सो कर दूसरे दिन के लिए नई स्फूर्ति तथा शक्ति से भर जाता है। तब जीवन की एक लंबी अवधि तक चलते रहने के लिए मृत्यु रूपी नींद की गोद में चली जाती है, तो इसमें खेद की क्या बात है? मृत्यु एक विश्राम लेकर वह पुन: किसी दूसरे शरीर में जागती है और नवीन स्फूर्ति, नए उत्साह से अपने लक्ष्य, मोक्ष की ओर अग्रसर हो चलती है। एक नहीं हजार तर्क और युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि मृत्यु, यदि उसका वरण ठीक स्थिति में किया जाए, तो जीवन से कहीं अधिक सुखकर तथा विश्रामदायिका ही पाई जाती है। महात्मा गांधी के इस कथन में कितना यथार्थ सत्य छिपा हुआ है।

इसको देख-समझकर भी क्या मृत्यु से घबराने, उससे घृणा करने अथवा उसे अवरणीय मानने का कोई कारण हो सकता है। वे लिखते हैं- ‘मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीवन की अपेक्षा अधिक सुंदर होना चाहिए। जन्म से पूर्व मां के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है, उसे छोड़ देता हूं, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन भर यातनाएं ही भुगतनी पड़ती है। इसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिए एक सी है। जीवन यदि स्वच्छ रहा तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिए। बालक जन्म लेता है, तो उसमें किसी तरह का ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है, फिर भी आत्मज्ञान नहीं हो पाता, पर मृत्यु के बाद तो बाहरी स्थिति का बोध सहज ही हो जाता है।

यह दूसरी बात है कि विकार युक्त होने के कारण उसका लाभ न उठा सकें, किंतु जिनका जीवन शुद्ध और पवित्र होता है, उन्हें तो उस समय बंधन-मुक्त ही समझना चाहिए। सदाचार का अभ्यास इसीलिए तो जीवन में आवश्यक बताया जाता है, ताकि मृत्यु होते ही मनुष्य शाश्वत शांति की स्थिति प्राप्त कर ले। वास्तविक बात तो यह है कि जिस मनुष्य ने अपने अपकर्मों द्वारा जीवन को काला बना लिया है, पुण्य प्रकाश से कोई वास्ता नहीं रखा, उसको मृत्यु से डरना तो क्या जीवन तक से डर लगा करता है। सदाचार तथा पुण्य परमार्थ से आलोकित जिंदगी में तो आनंद है ही मृत्यु के पश्चात् तो अक्षय आनंद के कोष खुल जाते हैं। मृत्यु का भय छोडि़ए और अपने पुण्य पुरुषार्थ द्वारा जीवन एवं मृत्यु दोनों पर एक वीर योद्धा की तरह विजय कर अक्षय पद प्राप्त कर लीजिए।
पं. लीलापत शर्मा  – विभूति फीचर्स

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