संसार के लगभग सभी मनुष्य ‘मैं’ ओर ‘मेरा’ में फंसे हुए हैं मेरा परिवार, मेरी नौकरी, मेरा घर, मेरे बच्चे, मैं व्यापारी हूं, उद्योगपति हूं, वकील हूं, चिकित्सक हूं, मैं नेता हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं। कितना बड़ा भ्रम है। इस भ्रम को दूर करो।
इस ‘मैं’ को जाने बिना ही ‘मैं-मैं’ की रट लगा रखी है, तत्व चिंतक कह रहे हैं, संत महात्मा समझा रहे हैं, शास्त्रा बता रहे हैं कि अपने आपको जानो, इस ‘मैं’ को पहचानो। मैं को जाने बिना परमात्मा को भी नहीं जान सकते, प्रभु को नहीं पा सकते, परन्तु तुम तो मैं को जाने बिना परमेश्वर की खोज में इधर-उधर भटक रहे हो।
तुम सोचते हो मंदिर में भगवान हैं, मस्जिद, गिरजो, गुरूद्वारों में भगवान है। इसीलिए वहां खोजते हैं। चांदी और सोने, ईंट और पत्थर में भगवान को पाना चाहते हैं। वह परमात्मा जहां है वहां खोजते नहीं। वह तुम्हारे ‘मैं’ के भीतर विद्यमान है, दीन-दुखियों की आह में विद्यमान है, पीड़ितों की कराह में विद्यमान है।
परमेश्वर को खोजने की चाह है तो उसे वहां खोजो, परन्तु तुम्हें वह मिलेगा कैसे? तुमने तो अपने कुकर्मों के द्वारा अपने अपवित्र विचारों के द्वारा अपने भीतर के उस स्थान को अपवित्र कर लिया है, जहां वह विराजमान है, उसकी उपस्थिति में बुरे कार्यों को करके उसके क्रोध का पात्र बन रहा है। परमात्मा को पाना है तो अपने ‘मैं’ के अहम् का, अपने अवगुणों का त्याग कर सद्गुणों को ग्रहण कर अपने पात्र को उसकी कृपा के योग्य बना।