मेरठ। वैश्विक संदर्भ में इस्लामोफोबिया एक गंभीर सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चुनौती बन चुका है। यह समस्या विभिन्न देशों में अलग-अलग रूपों में दिखाई देती है। इस्लामोफोबिया का अर्थ है इस्लाम और मुसलमानों के प्रति अनुचित भय, पूर्वाग्रह या घृणा। यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्या है। ये कहना है प्रोफेसर जमीलुद्दीन सिद्दीकी का। जो कि इस्लामोफोबिया पर रिसर्च कर रहे हैं। इस्लामोफोबिया और विश्व जैसे संवेदनशील मुददे पर एक सेमिनार का आयोजन गंगानगर स्थित एक शिक्षण संस्थान में किया गया। जिसमें इस्लामोफोबिया को लेकर वक्ताओं ने अपने विचार रखे।
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प्रोफेसर सिद्धीकी ने कहा कि इस्लामोफोबिया आमतौर पर गलतफहमियों, सांस्कृतिक भेदभाव, और राजनीतिक या सामाजिक प्रोपेगेंडा के परिणामस्वरूप विकसित होता है। वैश्विक संदर्भ में देखे तो इस्लामोफोबिया की अभिव्यक्ति यूरोपीय देशों में पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ा है। डॉ. गजाला सादिक ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मुस्लिम प्रवासियों की संख्या बढ़ने और आतंकी घटनाओं (जैसे 9/11 और पेरिस हमले) के बाद मुसलमानों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण बढ़ा। एशिया विशेषकर भारत में इस्लामोफोबिया सांप्रदायिक राजनीति, सोशल मीडिया प्रोपेगेंडा और ऐतिहासिक संघर्षों के कारण उभर कर आया है।
मुसलमानों को अक्सर सामाजिक और राजनीतिक रूप से निशाना बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि इसी प्रकार चीन में उइगर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ दमनकारी नीतियां (जैसे “री-एजुकेशन कैंप”) इस्लामोफोबिया का बड़ा उदाहरण हैं एवं म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हो रहे अत्याचार और उन्हें देश से निष्कासित करने की घटनाएं इस्लामोफोबिया का रूप हैं।2019 में न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिद पर हमला इस्लामोफोबिया का चरम रूप था।
जेएनयू स्कालर शहजाद सैफी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि प्रोफेसर भारत के विशेष संदर्भ में देखें तो भारत में इस्लामोफोबिया एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है। जो ऐतिहासिक, सांप्रदायिक और राजनीतिक कारणों से उत्पन्न हुआ है। सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) के अनुसार, मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति काफी पिछड़ी हुई है। उन्हें मुख्यधारा में शामिल होने में कठिनाई होती है। हालाँकि कई मामलों में, भारत में इस्लामोफोबिया की धारणा एक भ्रांति है। उन्होंने कहा कि कुछ असंतुष्ट आवाज़ों द्वारा कलह फैलाने के प्रयासों के बावजूद, प्रेम, सम्मान और एकजुटता के कई कार्य देश के ताने-बाने को मज़बूत करते रहते हैं।
इस्लामोफोबिया सहित किसी भी तरह की व्यवस्थित नफ़रत भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। बल्कि, हिंदू-मुस्लिम एकता की कहानियाँ जो हमें एक बेहतर, अधिक समावेशी समाज बनाने के लिए प्रेरित करती हैं, वे इस देश की धड़कन हैं। कानपुर के मुसलमानों के प्रयासों पर विचार करें जिन्होंने शिवरात्रि पर मंदिर जाने वाले भक्तों को दूध और फल उपलब्ध कराए। इस दौरान डॉ.ज्योत्सना ने कहा कि भारतीय लोग लगातार धार्मिक बाधाओं को पार करते हैं, चाहे वह कांवड़ यात्रियों का समर्थन करने वाले मुसलमान हों या रमजान के दौरान उपवास करने वाले हिंदू। ये उदाहरण केवल किस्से नहीं हैं। वे भारत के गहरे सांस्कृतिक लोकाचार को दर्शाते हैं। यह दर्शाता है कि कैसे भारतीय, अपने धर्म की परवाह किए बिना, सभी धर्मों का पालन करने के अधिकार को बहुत महत्व देते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि अन्य धर्मों का सम्मान करना “वास्तव में भारतीय” होने के लिए आवश्यक है।