Thursday, November 21, 2024

कहानी: चट्टान और आदमी

ठीक छह वर्ष के बाद धर्मेश आज फिर उसी रेलवे प्लेटफार्म पर अटैची हाथ में लिये ट्रेन से उतरा था, जहां से वह अंतिम परीक्षा देकर गांव को वापस गया था। बीते छह वर्षों में उसने कई जगह छोटे-मोटे जाब किए, लेकिन कहीं भी वह टिक न सका। यह महानगर उसका परिचित है, कई परिवारों से उसके अच्छे संबंध भी रहे हैं, यही सोचकर वह ‘काल लेटर मिलते ही थोड़ा आश्वस्त-सा लगा। यदि यहां उसकी नियुक्ति हो गई तो वह फिर स्थायी रूप से यहां बस जाएगा।
अभी साक्षात्कार शुरू होने में दो घंटे का समय बाकी है तब तक किसी साधारण से रेस्ट्रां में नाश्ता कर लिया जाए। यह विचारकर वह सड़क पर बनी चाय की गुमटी में आ गया। नाश्ते का आर्डर देकर वह गहरे सोच में डूब गया। हम आज स्वतंत्र हैं पर किस बात में। दूसरों को गाली देने में, राजनीतिज्ञों को भला-बुरा कहने में अथवा सरकार की आलोचना-प्रत्यालोचना करने में।
हम अपनी योग्यता के अनुसार काम नहीं पा सकते। पढऩे लिखने की इच्छा रखने वाले छात्र-छात्राएं विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में प्रवेश नहीं पा सकते। जनता चोर-डाकुओं से अधिक पुलिस से डरती है। नौकरियों में घूस, सिफारिश, भाई-भतीजावाद और जातिवाद का बोलबाला है। राजनेताओं, मंत्रियों, राज्यपालों व सरकारी अधिकारियों पर घोटालों और कमीशन खोरी के घिनौने आरोप लगते हैं, क्या यही स्वतंत्रता है।
वह यह सब सोच ही रहा था कि एक पुलिस का दरोगा सामने की सीट पर इस कदर आकर बैठ गया जैसे सीधे किसी मुठभेड़ से वापस आया हो। भारी भरकम पर बेडौल शरीर, अस्त-व्यस्त कई दिनों से पहनी गई वर्दी, जिससे पसीने की दुर्गंध निकलकर पास-पड़ोस के ग्राहकों को नाक बंद करने के लिए बाध्य कर रही थी।
एक 11-12 साल का लड़का गंदे से प्लास्टिक के जग में पानी लाया तो उस पुलिसमेन ने गर्दन ऊपर उठाकर मुंह में पानी उड़ेलना शुरू कर दिया। आधा जग पानी पीकर उसने दुकानदार की ओर घूरा जो घबड़ाया-सा पकौड़ी की प्लेट लेकर स्वयं आया। दरोगा इस कदर दो-दो, तीन-तीन पकौडिय़ां उठाकर मुंह में भरने लगा जैसे चार छह दिन से उसे खाना-पीना नसीब न हुआ हो।
एक-एक कर तीन प्लेट पकौड़ी, एक प्लेट खस्ता खाकर एक डकार ली, चाय को दूसरे गिलास में डालकर ठंडी करके गटागट पी गया और एक मरियल से रिक्शावाले को बुलाकर बैठा और चलता बना। दुकानदार ने उसकी मां-बहन से रिश्ता जोड़़ते हुये चैन की सांस ली।
यह दृश्य देखकर धर्मेश का मन खिन्नता से भर उठा। वह सोच रहा था क्या पुलिस की वर्दी पहनने से ही शिष्टाचार और सभ्यता के मायने बदल जाते हैं। क्या ऐसा आचरण किसी स्वाधीन राष्ट्र के लिये कलंक नहीं है। जनता के ये तथाकथित रक्षक किस सहजता से उसका भक्षण कर रहे हैं, कहीं कोई विरोध नहीं, कोई बगावत नहीं। शायद हमने यही अपनी नियति स्वीकार कर ली है।
नाश्ता करके वह भारी कदमों से सड़क पर आया, एक रिक्शा लेकर साक्षात्कार स्थल की ओर चल पड़ा।
चार रिक्त स्थानों के लिये लगभग 40 प्रत्याशी बुलाये गये थे। साक्षात्कार शुरू होने में अभी कुछ देरी थी। प्रत्याशी बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। विद्यालय का एक लिपिक कुछ लोगों से अलग बातें कर रहा था। धर्मेश भी उसी ओर बढ़ गया। बाबू ने पूछा ‘किस पद के लिये आये हैं आप वह बोला ‘अंग्रेजी प्रवक्ता पद के लिये। बाबू ने संतोष व्यक्त करते हुये कहा ‘अभी तक इस पद के लिये कोई बातचीत नहीं हुई है। यदि आप कुछ हिम्मत करें तो काम हो सकता है। इतना कहकर उसने दाहिने हाथ के अंगूठे को हिलाते हुए इशारा किया, इसके बगैर कुछ नहीं होने वाला है। जो भी चालीस हजार खर्च कर सके उसकी नौकरी पक्की समझो। एक साल में पैसा निकल आएगा, फिर तो जिंदगी भर मौज ही मौज है। ट्यूशन कोचिंग कर लें तो तीन महीने में ही वारा-न्यारा हो जायेगा।
धर्मेश घूस देना बहुत गलत समझता था। लेकिन उसका मन हो आया क्यों न गांव का खेत बेचकर यह नौकरी प्राप्त कर ली जाए। उसने कहा हम तैयार हैं, तुम बात पक्की करो।
क्लर्क ने एक छोटी-सी नोटबुक में उसका नाम लिखा और कहा ‘पैसा कब तक मिल जाएगा। चार-पांच दिन तो लग ही जाएंगे धर्मेश ने कहा और बाबू के मुंह की ओर देखने लगा। बाबू ने फिर कहा ठीक है एक सप्ताह के अन्दर पैसा अगर हमको मिल गया तो तुरन्त एप्वाइंमेंट लेटर तुमको देकर ज्वाइन करवा दूंगा और अगर तुमने कुछ ज्यादा देर की तो फिर तुम्हीं जानों। इतना कहकर वह चला गया। इण्टरव्यू की कार्रवाई शुरू हुई जो लगभग दो घंटे तक चलती रही। सभी से कहा गया कि नियुत्ति-पत्र डाक द्वारा भेजा जाएगा। सभी प्रत्याशी आशा-निराशा के झूले में झूलते हुये वहां से खिसकने लगे। धर्मेश ने एक बार उस बाबू से मिलकर फिर बात पक्की की और कार्यालय से निकलकर चल पड़ा।
बाहर आया तो रिक्शे की प्रतीक्षा करती प्रियंवदा आंटी खड़ी दिखाई दीं। उसने प्रणाम किया और बताया कि वह इंटरव्यू देने आया था। उम्मीद है उसे नौकरी मिल भी जाए। ‘आंटी आशा कैसी है, अब तो उसने बी.ए. कर लिया होगा।
‘नहीं धरम वह बेचारी बहुत अभागी है इसी वर्ष उसने इंटरमीडिएट पास किया है। तुम्हारी बहुत याद करती है। चलो उससे मिलकर तब कहीं जाना प्रियंवदा ने कहा।
‘आज नहीं आंटी मैं चार-पांच दिन में गांव से वापस आकर आपसे मिलूंगा, हां मेरे लिये एक कमरा भी देखती रहना। आप लोगों के पास-पड़ोस में रहूंगा तो ठीक रहेगा। इतना कहकर वह एक रिक्शा लेकर स्टेशन के लिए चल दिया।
निरी बालिका थी आशा जब वह उसे पढ़ाने जाता था। कक्षा 10 की परीक्षा दी थी उसने और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण भी हो गई थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि वह इंटरमीडिएट पास करने में छह वर्ष तक झूलती रही। पुरानी स्मृतियां एक-एक कर सिनेमा के पर्दे की भांति उसके सामने आने लगीं। सुन्दरता और भोलापन, सादगी और सहृदयता से ओत-प्रोत आशा। धर्मेश प्यार से उसे बुलबुल कहा करता था। उसकी आवाज भी थी कुछ ऐसी ही। थोड़ी-सी देर हो जाती आने में तो वह रूठ जाती। बड़ी-बड़ी तीखी आंखों से मोती झरने लगते। इतनी सुन्दर और दिलकश आंखें उसने पायी हैं कि कोई एक बार आंख भरकर देख ले तो उन्हीं में खो जाए। इन्हीं विचारों में गोते लगाता वह गांव पहुंच गया।
बूढ़े मां-बाप को जमीन बेचने के लिये तैयार करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। चार बीघा जमीन गांव से बहुत दूर थी और अक्सर खाली पड़ी रह जाती थी उसे बेच दिया धर्मेश ने। दूसरे दिन पैसा लेकर वह शहर आया और नियुक्ति-पत्र क्रय कर लिया। वह खुश था, नौकरी पाकर या आशा से मिलने का अवसर पाकर कहना कठिन है।
आशा ने जबसे सुना कि धर्मेश को इसी शहर में नौकरी मिलने वाली है वह बहुत खुश है। उसका दिल कह रहा थी कि धर्मेश आज अवश्य आयेगा। सबेरे से ही वह घर की सफाई और सजावट में लगी थी। क्या बात है आशा, आज तुमने नाश्ता भी नहीं किया कहती हुई उसकी मम्मी ने प्रवेश किया। उन्हें पता था कि आज आशा इतनेे मन से सफाई करने में क्यों तल्लीन है।
मम्मी को देखते ही आशा ने मनुहार करते हुए कहा- आपने कोई रूम देखा या नहीं मम्मी, आज धर्मेश जी आये तो कहां रहेंगे बेचारे।
उसकी मम्मी तो जैसे इस प्रश्न के लिये तैयार होकर आयी थीं। बोलीं ‘हां आशा मैं सोच रही हूं सामने वाला मकान दो-तीन महीने में खाली होने वाला है। वर्मा जी अपने नये मकान में जाने वाले हैं। एलाटमेंट का मकान है। अगर धर्मेश इसे एलाट करवा ले तो उसके लिये बहुत अच्छा रहेगा। तब तक वह अपने साथ रह लेगा। ऊपर वाला कमरा हम लोगों के इस्तेमाल में आता ही नहीं है। यही हम उसे दे देंगे।
मम्मी के इस प्रस्ताव से आशा को बहुत खुशी हुई। वह ऊपर के कमरे को व्यवस्थित करने के लिये चल दी।
धर्मेश कॉलेज से सीधा आंटी के पास आया। उनके सुझाव से उसे बेहद खुशी हुई। वह प्रियवंदा आंटी के सद्व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ। उसने सोचा आजकल इतना सब कौन करता है। वह भाग्यशाली है जो ऐसे अच्छे लोगों के संपर्क में है। आशा ने बड़े ही मनोयोग से धर्मेश का कमरा सजा दिया।
धर्मेश और आशा दोनों आज बहुत खुश थे। दोनों को मुंहमांगी मुराद मिल गई। कभी-कभी आदमी का भाग्य इसकी आकांक्षाओं को इस कदर पूर्ण कर देता है कि उसे अपने भाग्य पर विश्वास ही नहीं होता। आज दोनों को ऐसा ही अनुभव हो रहा था।
बचपन की चाहत जब यौवन की देहली में कदम रखती है तो उसका रंग बहुत गहरा और लुभावना होता है। वहां जनम-जनम तक साथ निभाने के वादे नहीं होते एक अनचाहा संकल्प होता है जो दो सहृदय प्रेमियों की भावना की डोर को अनजाने में ही जोड़़ देता है। धर्मेश और आशा आज उसी मजबूत डोर से बंध गये हैं।
एक-दूसरे की कमजोरी बन गये हैं। आशा को उसकी परीक्षा की चिंता नहीं है उसके लिये धरम को फिकर रहती है। नोट्स बनाने से लेकर अंग्रेजी-हिन्दी की टेक्स्ट बुकस की तैयारी करवाना सब धर्म के ही जिम्मे है। तो दूसरी ओर उसकी सारी जरूरतों की चिंता आशा करती है।
चाय, नाश्ता से लेकर कपड़ों की सफाई और नया सूट सिलवाना सभी काम वह कर लेती है। यहां तक उसे यह भी नहीं पता रहता कि आज कौन से कपड़े पहनकर उसे विद्यालय जाना है। प्रेम सदा से पराश्रयी है, वह दूसरे पक्ष के अधीन रहता ही है। दोनों को यह अनुभूति तब हुई तब सत्र का अंत हो गया और धर्म अपने गांव जाने के लिये तैयार होने लगा।
उसकी तैयारी देखकर आशा की आंखें गीली हो आई हैं उसे यह कल्पना भी असहज थी कि धर्म कुछ ही दिनों के लिए सही पर उससे दूर जा रहा है।
आज उसकी तैयारी में वह कोई सहायता नहीं कर रही थी। सोफे पर इस तरह मौन और शान्त बैठी थी, जैसे कोई अपरिचित और मेहमान है।
दुर्गा प्रसाद शुक्ल ‘आजाद-विभूति फीचर्स

- Advertisement -

Royal Bulletin के साथ जुड़ने के लिए अभी Like, Follow और Subscribe करें |

 

Related Articles

STAY CONNECTED

74,306FansLike
5,466FollowersFollow
131,499SubscribersSubscribe

ताज़ा समाचार

सर्वाधिक लोकप्रिय