Friday, November 22, 2024

सुप्रीम फैसलों ने बढ़ाया देश का मान

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में कई ऐसे फैसले दिए हैं जिससे देश का मान तो बढ़ा ही है। उसके साथ ही वो फैसले न्यायपालिका के क्षेत्र में भी मील के पत्थर साबित होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों से जहां हर देशवासी को गौरवान्वित किया हैं। वहीं देशवासियों का न्यायपालिका के प्रति विश्वास को भी सुदृढ़ किया है। सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों की पूरे देश में सराहना हो रही है। देश के आम आदमी को भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह महसूस होने लगा कि हमारे देश में न्याय कभी कमजोर नहीं हो सकता है। हालांकि पिछले कई वर्षों से देश में न्यायपालिका को कमजोर करने के आरोप लग रहे थे जिनको सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने झुठला दिया है।

सोमवार को वोट के बदले नोट के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। अब रिश्वत लेकर सदन में वोट दिया या सवाल पूछा तो सांसदों या विधायकों को विशेषाधिकार के तहत मुकदमे से छूट नहीं मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने सोमवार को अपना 25 साल पुराना फैसला पलट दिया। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएस बोपन्ना, एमएम सुंदरेश, पीएस नरसिम्हा, जेबी पारदीवाला, संजय कुमार और मनोज मिश्रा की संवैधानिक पीठ ने कहा कि हम 1998 में दिए गए जस्टिस पीवी नरसिम्हा के उस फैसले से सहमत नहीं हैं। जिसमें सांसदों और विधायकों को सदन में भाषण देने या वोट के लिए रिश्वत लेने पर मुकदमे से छूट दी गई थी।

1998 में 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने 3-2 के बहुमत से तय किया था कि ऐसे मामलों में जनप्रतिनिधियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि अगर कोई घूस लेता है तो केस बन जाता है। यह मायने नहीं रखता है कि उसने बाद में वोट दिया या फिर स्पीच दी। आरोप तभी बन जाता है जिस वक्त कोई सांसद घूस स्वीकार करता है। संविधान के आर्टिकल 105 और 194 सदन के अंदर बहस और विचार-विमर्श का माहौल बनाए रखने के लिए हैं। दोनों अनुच्छेद का मकसद तब बेमानी हो जाता है। जब कोई सदस्य घूस लेकर सदन में वोट देने या खास तरीके से बोलने के लिए प्रेरित होता है।

आर्टिकल 105 या 194 के तहत रिश्वतखोरी को छूट हासिल नहीं है। रिश्वत लेने वाला आपराधिक काम में शामिल होता है। ऐसा करना सदन में वोट देने या भाषण देने के लिए जरूरत की श्रेणी में नहीं आता है। सांसदों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट कर देती है। हमारा मानना है कि संसदीय विशेषाधिकारों के तहत रिश्वतखोरी को संरक्षण हासिल नहीं है।

यह मुद्दा दोबारा तब उठा जब झामुमो विधायक सीता सोरेन ने अपने खिलाफ जारी आपराधिक कार्रवाई को रद्द करने की याचिक दाखिल की। उन पर आरोप था कि उन्होंने 2012 के झारखंड के राज्यसभा चुनाव में एक खास प्रत्याशी को वोट देने के लिए रिश्वत ली थी। सीता सोरेन ने अपने बचाव में तर्क दिया था कि उन्हें सदन में कुछ भी कहने या वोट देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 194 (2) के तहत छूट हासिल है।

इसी तरह कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला देते हुए राजनीतिक दलों के लिए चंदा जुटाने की पुरानी इलेक्टोरल बांड स्कीम को अवैध करार देते हुए इसके जरिए चंदा लेने पर तत्काल रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इलेक्टोरल बांड की गोपनीयता बनाए रखना असंवैधानिक है। यह स्कीम सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में गठित पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया था।

अपने फैसले में चीफ जस्टिस ने कहा है कि पॉलीटिकल प्रोसेस में राजनीतिक दल अहम यूनिट होते हैं। पॉलिटिकल फंडिंग की जानकारी वह प्रक्रिया है जिससे मतदाता को वोट डालने के लिए सही चॉइस मिलती है। वोटर्स को चुनावी फंडिंग के बारे में जानने का अधिकार है। जिससे मतदान के लिए सही चयन होता है।

याचिकाकर्ताओं ने इस योजना को लागू करने के लिए फाइनेंस एक्ट 2017 और फाइनेंस एक्ट 2016 में किए गए कई संशोधन को गलत बताया था। याचिकाकर्ताओं का दावा है कि कि इससे राजनीतिक दलों को बिना जांच और टैक्स भरे फंडिंग मिल रही है। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017 के बजट में चुनावी इलेक्टोरल बांड स्कीम को पेश किया था। जिसे 2 जनवरी 2018 को केंद्र सरकार ने नोटिफाई किया था।

दिसंबर 2019 में याचिकाकर्ताओं ने इस योजना पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक आवेदन दिया था। इसमें मीडिया रिपोट्र्स के हवाले से बताया गया था कि किस तरह चुनावी बांड योजना पर चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक की चिंताओं को केंद्र सरकार ने दरकिनार कर दिया था।

चुनाव आयोग का मानना था कि चंदा देने वालों के नाम गुमनाम रखने से पता लगाना संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दल ने धारा 29 ( बी) का उल्लंघन कर चंदा लिया है या नहीं। विदेशी चंदा लेने वाला कानून भी बेकार हो जाएगा। भारतीय रिजर्व बैंक का मानना था कि इलेक्टोरल बांड मनी लॉन्ड्रिंग को बढ़ावा देगा। इसके जरिए ब्लैक मनी को व्हाइट करना संभव होगा। चुनाव आयोग व रिजर्व बैंक की आपत्ति के बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला अपने आप में ऐतिहासिक माना जा सकता है।

कुछ दिनो पूर्व चंडीगढ़ मेयर चुनाव मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने बड़ा फैसला करते हुए आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कुलदीप कुमार को मेयर घोषित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह की तरफ से घोषित बीजेपी कैंडिडेट मनोज कुमार सोनकर को मेयर के तौर पर विजेता घोषित करने का फैसला अवैध है और उसे खारिज किया जाता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि पूरे चुनावी प्रक्रिया को खारिज करने से लोकतांत्रिक सिद्धांत के लिए विनाशकारी होगा क्योंकि यह सब पीठासीन अधिकारी के मिसकंडक्ट के कारण हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पीठासीन अधिकारी मसीह ने जानबूझकर आठ बैलेट पेपर को विकृत किया है। इसलिये उनके खिलाफ मुकदमा चलाए जाने के लिए नोटिस जारी किया है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अनुच्छेद 142 के तहत विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए आदेश पारित करते हुए कहा था कि पूर्ण न्याय के लिए हम निर्देश जारी कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस और चीफ जस्टिस ने बैलेट पेपर और वीडियो का अवलोकन किया और खुद ही परीक्षण किया और पाया है कि वह विकृत नहीं है।

शीर्ष अदालत ने कहा कि जो रिजल्ट शीट है उसमें 12 वोट याचिकाकर्ता कुलदीप को मिले हैं। जबकि 16 वोट बीजेपी कैंडिडेट मनोज सोनकर को मिले थे और 8 बैलेट पेपर को पीठासीन अधिकारी ने अमान्य करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इन आठ बैलेट को मान्य करार दिया और कहा कि इनमें वोट कुलदीप कुमार के पक्ष में पड़े थे। शीर्ष अदालत ने कहा कि इस तरह से कुलदीप कुमार को कुल 20 वोट मिले हैं और उन्हें मेयर पद पर विजेता घोषित किया जाता है।

भारत में इस तरह के फैसलों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत होगी। वहीं गलत कार्य करने वालों के मन में भी भय व्याप्त होगा। उन्हे लगेगा कि उनके गलत कार्यो पर कभी भी कार्यवाही की जाकर उन्हे कटघरे में खड़ा किया जा सकता हैं। इसलिये गलत काम करने वाला सौ बार अच्छे बुरे की सोच कर ही अपना कदम उठायेगा।
रमेश सर्राफ धमोरा

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