सभी धर्मावलम्बी अपनी-अपनी पूजा पद्धतियों के माध्यम से ईश्वरोपासना करते हैं, परन्तु क्या मात्र इस पूजा पाठ से ही ईश्वर प्रसन्न होते हैं ? बाहर की पूजा के साथ-साथ मानसिक पूजा भी होनी चाहिए अर्थात जिसमें ‘आप’ स्वयं सम्मलित हो गये।
कई बार लोग कहते हैं कि हमारा मन पूजा में टिकता ही नहीं। भाई दिन-रात संसार में भटक सकते हो फिर दस-पांच मिनट एकाग्र होकर मंदिर में नहीं बैठ सकते? क्यों ?
वह इसलिए कि मन में प्रभु के लिए प्रीति की प्रबलता नहीं। तीन घंटे सिनेमा हाल में आंख गड़ाये रह सकते हो। टी.वी. पर घंटों परिवार तोडऩे वाले सीरियलों को देख सकते हो, परन्तु भगवान के चरणों में बैठने पर बैचेन हो जाते हो।
इसका अर्थ है कि जीवन में जो पाप है, दुष्प्रवृतियां हैं वे आपको शुभ स्थान पर टिकने नहीं देते। इसके लिए योग्यता अर्जित करिए, अधीर होकर प्रभु को पुकारिये, ऐसी पुकार जो हमें ‘उसे’ पाने के लिए व्याकुल कर सके।
बरसात में जैसे कोई टूटी हुई छत टपकती है, कोई अपमान कर दे तब आंखें टपकती है, ऐसे ही हे नाथ कृपा करो कि अब किसी के अपमान में नहीं, बल्कि आपके ध्यान में हमारी इन आंखों से आंसू की धारा बह निकले।