Monday, December 23, 2024

पूर्वजों को जल देने का भारतीय विधान सिर्फ कर्मकांड नहीं, विज्ञान भी!

भारतीय ऋषियों ने अपने तमाम शोधों में से एक अनुसंधान देह की समाप्ति (मृत्यु) के बाद के दूसरे संसार पर भी किया है, जिसे हम आत्माओं का घर भी कहते हैं। जिस प्रकार मनुष्य अनेकानेक जीवाणुओं और विषाणुओं को अपनी खुली आंखों से देख नहीं सकता, किंतु उनका अस्तित्व है, उसी प्रकार से आत्माओं का जगत है, जहां से मृत्युलोक में ये आत्माएं नाना प्रकार के शरीरों में बार-बार आती हैं। कुछ हमारे आस-पास भी रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी भी हैं जोकि लम्बे समय तक जन्म नहीं लेतीं, क्योंकि उनका पूर्व जन्म का बंधन जोकि मन से जुड़ा है वह जागृत रहता है, स्वभाविक है, वे आत्माएं अपने कुल-परिवार से इतनी अपेक्षा जरूर करेंगी कि वे उनके वर्तमान में भौतिक अस्तित्व का कारण हैं, इसलिए कम से कम कुछ दिन ही सही उनके प्रति श्रद्धा का संस्कार तो पूर्ण करेंगे ही।
वास्वत में श्राद्ध की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाय वही श्राद्ध है। यह श्राद्ध ठीक आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से पितृपक्ष प्रारंभ होता है और 15 दिन शुक्ल प्रतिपदा तक चलता है। पितृपक्ष में पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है। इस संबंध में श्रीमद्भागवत में भगवान श्री कृष्ण का कथन है-
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च 7
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि 77 श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 2, श्लोक 27
अर्थात जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। यह प्रकृति का नियम है। शरीर नष्ट होता है मगर आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती है। वह पुन: जन्म लेती है और बार-बार जन्म लेती है। इस पुन: जन्म के आधार पर ही कर्मकाण्ड में श्राद्धदि कर्म का विधान निर्मित किया गया है। हालांकि श्राद्ध कर्म, तर्पण विधि की वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता के अपने तर्क हो सकते हैं, किंतु इसे कुछ इस तरह समझना होगा जैसा कि हमारे आस-पास अनेकों पाई जाने वाली ध्वनि तरंगे हैं। इन तरंगों को आप महसूस नहीं कर सकते, किंतु हर तरंग आपकी ली गई सांसों से शरीर के अंदर और बाहर स्वत: हो रही हैं। इस संपूर्ण प्रक्रिया में जैसे ही एक निश्चित तरंग को उसकी संचारक गति पर स्थिर किया जाता है, सामने से आवाजें सुनाई देने लगती हैं। बोलते चित्र भी प्रकट हो जाते हैं।
भारतीय ऋषि परंपरा है पूरी तरह वैज्ञानिक
वस्तुत: जो भी लोग श्राद्ध पक्ष को लेकर अविश्वास व्यक्त करते हैं, उन्हें यहां समझ लेना होगा कि अपनी ऋषि परंपरा पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं। अब तक हिन्दू जीवन की जीतनी भी परंपराएं पाई गई हैं, उसके पीछे कोई न कोई वैज्ञानिकता सामने आती रही है। हिन्दू शास्त्रकारों ने इस विषय की ऐसी बारीकी से खोज की है कि मनुष्यों को अपने सब प्रकार के भले बुरे कर्मों के परिणामों का भली प्रकार ज्ञान हो जाता है और वे परलोक के स्वरूप को बहुत अच्छी तरह समझ सकते हैं। उदाहरण के तौर पर मृत्यु के बाद दाह संस्कार ही क्यों किया जाता है? तब इसका उत्तर होगा कि कोई भी मनुष्य हो, वह प्रकृति से जीवन भर लेता है, यदि कोई इंसान अत्यधिक कंजूस है, सिर्फ  लेने पर ही भरोसा रखता है, उससे भी जीवन के अंत के बाद पांच तत्वों में भौतिक शरीर के विलीन हो जाने पर शेष अस्थियों में बचे अग्नि के ताप से पवित्र कैल्शियम और फास्फोरस को बहते हुए नदी जल में विसर्जित कर जीव-जगत की सेवा करने का विधान है।
गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी या अन्य नदी के एक घाट पर अस्थि विसर्जन चल रहा होता है तो दूसरे घाट से नदी के पवित्र जल को अनेक मनुष्य एवं नाना प्रकार के जीव-जन्तु पीकर अपनी प्यास बुझा रहे होते हैं। स्वभाविक है कि विसर्जित अस्थियों का जल उन तमाम शरीरों में जाता है जो कि नदी के जल का सेवन करते हैं या वह जल कृषि कार्य में उपयोग लिया जा रहा है। इस पूरे चक्र में आप देखेंगे कि विसर्जित अस्थियों का कैल्शियम जल के पीने के साथ अनेक जीवों के शरीर में जाकर उनके जीवन को पुष्टता प्रदान करता है और शरीर में प्राकृतिक रूप से कैल्शियम की कमी को दूर करने का कारण बनता है। इसी प्रकार के अनेकों उदाहरण वनस्पतियों, औषधि, धातु, सौरमण्डल, खगोल विज्ञान, वास्तु विज्ञान समेत हर क्षेत्र में आज प्रमाणित हो चुके हैं, जिन्हें कल तक सिर्फ धारणा कहकर या हिन्दू माइथोलॉजी (मिथ) कहकर आविश्वास प्रकट करते हुए उनके होने पर ही प्रश्न खड़ा किया जाता था, उन्हें सही होने के बाद भी नकार दिया जाता था, किंतु आज वे शत प्रतिशत सही सिद्ध हो चुके हैं।
पुनर्जन्म की अनेक कहानियां आ चुकी हैं सामने
कहना होगा कि मृत्यु के बाद जीवन का विषय भी कुछ इसी प्रकार का है। भारतीय संदर्भ में मृत्यु के बाद नए जीवन लेने के कई उदाहरण वर्तमान में हमारे सामने हैं, जोकि अन्य मत, पंथ, रिलीजन की धारणाओं के उलट हैं, जैसेकि बेंगलुरु की नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ  मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत डॉ. सतवंत पसरिया द्वारा इस विषय पर लम्बे समय तक किए गए शोध के आधार पर पुनर्जन्म पर प्रकाशित ‘श्क्लेम्स ऑफ रिइंकार्नेशनरू एम्पिरिकल स्टी ऑफ कैसेज इन इंडियास’ पुस्तक लिखी गई। इसमें उन्होंने 1973 के बाद से भारत में हुई 500 पुनर्जन्म की घटनाओं का उल्लेख किया है। यह पुस्तक तथ्यों के साथ यह प्रमाणित कर देती है कि मृत्यु के बाद पुनर्जन्म है और पुनर्जन्म होने के पहले पितर, प्रैत योनी भी है, जहां कई बार पुनः: जन्म लेने वाली आत्मा को कई वर्षों तक रुकना पड़ा था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में शामिल ‘मैनी लीव्स मैनी मास्टर्स’ है, जिसके लेखक डॉ. ब्रायन वीस एक मरीज की सच्ची कहानी के बारे में लिखते हैं। ब्रायन वीस अपने मरीज से सवाल पूछते हैं। उक्त महिला मरीज जब इन सवालों के जवाब देती है तो वीस हैरान रह जाते हैं। क्योंकि इन समस्याओं के तार पिछले जन्म से भी जुड़े रहते हैं। गीता प्रेस गोरखपुर ने भी अपनी एक किताब ‘परलोक और पुनर्जन्मांक’ में ऐसी कई घटनाओं का वर्णन किया गया है, जिससे कि पुनर्जन्म होने की पुष्टि होती है। इस बच्चे की उम्र केवल चार साल थी, तब से कहीं बड़ी उम्र के महिला-पुरुष इसे पिता और ससुर के रूप में सम्मान दे रहे हैं। बच्चा भी उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करता है जैसे वह उनका पिता और सुसुर हो। इसका कारण इस बच्चे का इन लोगों से पिछले जन्म का रिश्ता होना है। यह घटना मध्य प्रदेश के सीहोर जिले से 10 किलोमीटर दूर बसे लसूडिया गांव की है। इस गांव में 11 अगस्त 2008 को आत्माराम के घर एक बालक का जन्म हुआ। परिवार वालों ने इस बालक का नाम विशाल रखा, चार साल की उम्र में इस बालक ने अपने पिछले जन्म के परिवार जनों के बारे में बताया और मिलने की जिद की ।
वह बता रहा था कि मोगराराम नाम के स्थान का रहनेवाला है और उसका नाम मेहताब सिंह है। बच्चे को जब मोगराराम ले जाया गया तो पता चला कि उसका कहा सच है। इस विशाल नाम के चार साल के बच्चे ने पूर्वजन्म में उनके साथ हुई लूट की घटना और खेत-खलिहान तक को पहचान लिया। मेहताब सिंह के बेटे और बहू ने चार साल के विशाल को अपना पिता और ससुर मान लिया और इसी रूप में इन्हें सम्मान दिया। गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका में इस घटना का उल्लेख किया गया है। अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. इयान स्टीवेंसन ने 40 साल तक इस विषय पर शोध करने के बाद एक किताब ‘रिइंकार्नेशन एंड बायोलॉजी’ लीखी थी जिसे सबसे महत्वपूर्ण शोध किताब माना गया है।
वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ ने एक किताब लिखी है, ‘पुनर्जन्म : एक ध्रुव सत्य। इसमें पुनर्जन्म के बारे में अच्छी विवेचना की गई है। लखनऊ लिट्रेचर फेस्टिवल-2018 में पूर्वजन्म की अवधारणा पर आधारित एक पुस्तक का विमोचन किया गया, नाम है ‘पास्ट फॉरवर्ड। यह पुस्तक अमृता लांबा नाम की लेखिका ने अपने पिता बलबीर सिंह उप्पल के जीवन पर लिखी है, उन्हें अपने पिछले जन्म की सभी बातें याद रहीं। बचपन में ये अपने माता-पिता के साथ अपने पिछले जन्म के घर, जो अब पाकिस्तान में है भी गए थे । लेकिन बाद में इनके माता-पिता ने वहां जाना बंद कर दिया क्योंकि वे अपने बेटे को परेशान होते हुए नहीं देखना चाहते थे। अमृता ने अपने पिता द्वारा बताई गई यादों पर पाकिस्तान जाकर ही रिसर्च की और सब कुछ सही पाया। यानी कि मृत्यु के बाद जीवन है और इस पुनर्जीवन के बीच जो ठहराव है, वह पितर लोक का है।

चंद्रमा पर है पितरों (आत्माओं) का निवास
शतपथ ब्राह्मण में कहा है विभु: उध्र्वभागे पितरो वसन्ति यानी विभु अर्थात चंद्रमा के दूसरे हिस्से में पितरों का निवास है। अब यह बात अलग है कि पश्चिम का विज्ञान इसे अब तक सत्य स्वीकारने को तैयार नहीं, किंतु भारत में इसके अनेकों उदाहरण ही नहीं परकाया प्रवेश से लेकर आत्मा के प्रकाश और स्थूल शरीर के बिना जीवन को तथ्यों के आधार पर स्वीकार करने वाले वैज्ञानिकों की कोई कमी आज भी नहीं है। श्राद्ध कर्म में पिण्डदान हो या जल एवं तिल इत्यादि पितरों को समर्पित करना, यह हमारी श्रद्धा से जुड़ा है। वस्तुत: श्राद्ध आत्मा के गमन जिसे संस्कृत में प्रैति कहते हैं का ही पर्याय है। प्रैति ही बाद में लोक भाषा में भूत-प्रेत बन गया, जबकि यह आत्मा और मन है। जब शरीर छूटता है तो प्राण तत्व मन को लेकर बाहर निकलता है। किंतु मोह वश वह मृत हुई अपनी देह के इर्द-गिर्द ही घूमता है। शरीर के अग्नि में समाहित होने के बाद भी प्राण मन के साथ उस देह आत्मा के बन्धु-बान्धव यानी कि कुटुम्ब के साथ एक मय रहता है।
मन के बारे में शास्त्र कहते हैं कि मन चंद्रमा से जुड़ा है। यह चंद्रमा से आता है और चंद्रमा में ही जाता है। दाह संस्कार के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में है, प्राण मन को उस ओर ही लेकर जाता है। चंद्रमा 27 दिनों के अपने चक्र में क्रमश: 27 नक्षत्रों में घूमता है, और 28वें दिन फिर से उसी नक्षत्र में आ जाता है। मन की यह 28 दिन की यात्रा है। इसलिए मासिक श्राद्ध और पिण्ड दान का विधान हिन्दू सनातन व्यवस्था ने किया है। इसी के साथ यहां पिण्ड दान में चावल एवं अन्य अन्नों के महत्व को भी समझते चलते हैं। चंद्रमा सोम का कारक है। इसलिए उसे सोम कहा गया । सोम सबसे अधिक चावल में पाया जाता है। सोम तरल दृव्य है, धान भी सदैव पानी में डूबा रहता है। चावल के आटे का पिंड भी इसीलिए बनाया जाता है, तिल और जौ भी इसमें मिलाते हैं, फिर पानी और घी भी मिलाया जाता है, जिससे कि इसमें और भी अधिक सोमत्व आ जाता है।
श्राद्ध की हर क्रिया के पीछे गहरा भाव निहित

हिन्दू शास्त्रों के अनुसार शरीर के अंग-प्रत्यांगों में हथेली के ऊपरी भाग अंगूठे और तर्जनी के मध्य में नीचे का उभरा हुआ स्थान शुक्र स्थान है। शुक्र से ही हम जन्म लेते हैं और हम शुक्र ही हैं, इसलिए वहां पिण्डदान करते समय कुश रखा जाता है। कुश ऊर्जा का कुचालक होता है। श्राद्ध करने वाला इस कुश पर पिंड को रखता है फिर उसे सूंघता है। ऐसा करने के पीछे का भाव यह है कि उसका और उसके पितर का शुक्र जुड़ा हुआ है, इसलिए वह श्रद्धाभाव से आकाश की ओर देख कर, सूंघकर उसे पितरों को समर्पित करता है और पिंड को जमीन पर गिरा देता है। ऐसा करने से पितरों को ऊर्जा मिलती है।

इस तरह से हम सनातनी प्रैति या प्रेत को उसके गंतव्य स्थान चंद्रमा तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं। इसलिए पिंडदान षोडश संस्कार में अंतिम संस्कार का एक महत्वपूर्ण विधान है। इस क्रिया के बाद से फिर मोक्ष की यात्रा शुरू हो जाती है, चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाएगा। मोक्ष का यही रास्ता है। उसके बाद फिर देहआत्मा पुनर्जन्म लेगी अथवा नहीं, यह उसके सिंचित कर्मों पर निर्भर करता है। तब तक वह चंद्रमा पर वास करेगी, इन पितर पक्ष के 16 दिनों में हर वर्ष चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक होता है, इसलिए इन दिनों में पितरों की विशेष पूजा एवं आराधना की जाती है।
श्राद्ध का आर्थिक पक्ष और ग्राम्य- वन संस्कृति

इसके साथ ही इन 16 दिनों की पूजा का आर्थिक पक्ष भी है, समाज में सुदूर ग्राम्य एवं वन्य जीवन में नदियों के किनारे पाई जाने वाली विशेष कुशा (घास) से बनने वाले आसन एवं श्राद्ध के दौरान अनामिका उंगली में पहनी जाने वाली कुशा की अंगूठी जिसे पवित्री कहा जाता है उसका अपना महत्व है। अनामिका उंगली में कुशा की अंगूठी पहनना शुभ माना गया है। इसके अलावा पूजा की कई सामग्रियां ग्राम्य एवं वनांचल में तैयार की जाती हैं। इन 16 दिनों में जब भारत के कोने-कोने में सनातन हिन्दू समाज अपने पूर्वजों के लिए इस कुशा एवं अन्य पूजा सामग्री का उपयोग करता है तो देश के बहुत अंदर या वनांचल क्षेत्र में पाई जाने वाली समस्त कुशा से बनने वाले आसन एवं अन्य सामग्रियों का उपयोग (खपत) इतनी अधिक होती है कि कई बार इनकी बाजार में कमी तक हो जाती है। कहने का तात्पर्य है कि धन का विकेंद्रीकरण, यहां श्राद्ध पक्ष में आप सुदूर बैठे लोगों तक सहजता से होता हुआ पाते हैं, ताकि उनकी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति वर्ष भर इसी काम से हो जाए। तब यह श्राद्ध कर्म अपने पितरों को श्रद्धा अर्पित करने तक सीमित नहीं रह जाता है, यह अनेकों के जीवन में उजास लाने का कारण बनता हुआ भी दिखाई देता है।

 

अत: कहना होगा कि जिस अनुसंधान की उच्चावस्था तक भारतीय मनीषा पहुंची है, उस तक अभी आधुनिक-पश्चिमी विज्ञान को पहुंचने में बहुत समय लगेगा। अब तक समय के साथ भारत के ऋषियों की बातें, उनकी समस्त खोजें सच साबित होती रही हैं। इस आधार पर आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि श्राद्ध पक्ष और पितृ पक्ष से जुड़ा यह वैज्ञानिक पक्ष भी एक दिन आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर संधारित हो जाएगा, इसलिए आप अपनी जड़ों से जुड़े रहें, अपने पूर्वजों को इन 16 दिनों तक सतत याद कर उनके प्रति अपने होने के कारण के निमित्त श्रद्धा अर्पित करते रहें। अपने पूर्वजों को जल देने का भारतीय विधान सिर्फ कर्मकांड नहीं, विज्ञान ही है।
-डॉ. मयंक चतुर्वेदी

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